बलिया लाइव नवरात्रि स्पेशल: सिकंदरपुर का एक मंदिर, त्याग और बलिदान का है प्रतीक

Ballia Live Navratri Special: A temple in Sikandarpur is a symbol of renunciation and sacrifice
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सिकंदरपुर का एक मंदिर, त्याग और बलिदान का है प्रतीक
आस्था व विश्वास ने जल्पा-कल्पा मन्दिर को बनाया शक्ति का केंद्र दर्शन मात्र से दूर होते हैं कष्ट

 

सिकन्दरपुर, बलिया. शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र रविवार से शुरू हो गया है. नवरात्र यानी नौ पावन, दुर्लभ, दिव्य व शुभ रातों का संयोग जो प्रतिपदा से नवमी तक निश्चित नौ तिथि व नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जाता रहा है.

आज हम आपको एक ऐसी कहानी बताने जा रहे हैं जो लगभग 529 साल पुरानी है. गुलाब, बेला, चमेली व इत्र की धरा पर विराजी मां जल्पा-कल्पा, नगर को न सिर्फ हर बला से बचातीं हैं बल्कि भक्तों की हर मनोकामना भी पूरा करतीं हैं. यह स्थान जितना पुराना है इसका रहस्य भी उतना ही अनूठा है.

Ballia Live Navratri Special: A temple in Sikandarpur is a symbol of renunciation and sacrifice

आचार्य पंडित विजय शंकर दूबे बताते हैं कि यहां की समृद्ध धार्मिक परम्परा की पहचान बने ये दोनों मन्दिर अपने दामन में कई ऐतिहासिक पहलुओं को समेटे हुए है.

यह मंदिर जल्पा-कल्पा नाम की दो बालिकाओं की जीवन गाथा का जीवन्त प्रतीक है जो अपने त्याग और उत्सर्ग के बल पर न सिर्फ एक देवी के समकक्ष स्थान बनाने में सफल हुईं बल्कि आस्था व विश्वास के मामले में किसी भी देवी-देवता से कम नहीं है.

यह अटल सत्य है कि मां जल्पा-कल्पा के बिना सिकंदरपुर वासियों का जीवन क्रम अधूरा है. उनकी शक्ति और कृपा के प्रति अटूट व अगाध विश्वास ही लोगों को उनके प्रति श्रद्धानवत करता है.

बलिया के प्रसिद्ध साहित्यकार शिवकुमार कौशिकेय की पुस्तक ‘बलिया की विरासत’ के अनुसार इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जल्पा व कल्पा मध्य युगीन राजनीतिक क्रूरता की शिकार बालिकाएं हैं जिनका बलिदान ही उन्हें आस्था, विश्वास और शक्ति का केंद्र बनाता है.

Ballia Live Navratri Special: A temple in Sikandarpur is a symbol of renunciation and sacrifice

आज उनका वही महत्व है जो किसी पौराणिक देवी का होता है. नए कार्यों के शुभारंभ से लेकर दैनिक जीवन यात्रा तक सभी मां के दर्शन पर आधारित है. यदि वर यात्रा से पहले मां के दर्शन का विधान है तो यहां की शव यात्रा भी मां की चौखट से ही शुरू होती है.

कौन थीं ये देवियां इसकी जानकारी जनश्रुतियों से ही मिलती है. बुजुर्गों की मानें तो सदियों पूर्व नगर के पश्चिम दिशा में सावर्ण गोत्र के ब्राह्मणों की एक बस्ती थी. इसी बस्ती के एक ब्राह्मण कन्या का नाम जल्पा था. 1493 ईसवी में दिल्ली का बादशाह सिकंदर लोदी कठौड़ा घाट के रास्ते तत्कालीन पुरुषोत्तमनगर ( नया नाम सिकन्दरपुर) पहुंचा. उसके निर्देश पर नगर के दक्षिण पूर्वी भाग में एक किले का निर्माण शुरू कराया गया. लोग बताते हैं कि दिन में निर्मित किले की दीवार रात में कुछ लोग गिरा देते थे. यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा. इसकी सूचना सिकंदर लोदी को मिली तो उसने अपने सिपहसालार व कारखासों को समस्या समाधान का निर्देश दिया. बावजूद कोई निष्कर्ष नहीं निकला.

बाद में किसी नजूमी (ज्योतिषी) ने एक ब्राम्हण और एक शूद्र कुंवारी कन्या की बलि देने की सलाह दी. बादशाह के निर्देश पर कुंवारी कन्याओं के रूप में ब्राह्मण कन्या जल्पा और शूद्र कन्या कल्पा को क्रमशः किले की पश्चिमी व पूर्वी दीवार के पास बलि दे दी गई. बताया तो यह भी जाता है कि जल्पा को जब बलि देने की बात का पता चला तो क्रोधित हो उठीं और श्राप भी दिया था जिससे एक वर्ग आज भी प्रभावित है.

श्रीभगवान राय कहते हैं कि मां जल्पा के दर्शन के लिए जिले ही नहीं आसपास के जिलों के लोग आते हैं. मन्नतें पूरी होने पर चढ़ावा चढ़ाने का रिवाज है. वासुदेव जायसवाल बताते हैं कि जो भी यहां श्रद्धा व विश्वास से आता है उसकी झोली कभी खाली नहीं रहती. अवधेश कुमार ने बताया कि सैकड़ों वर्ष से माता का मंदिर क्षेत्रवासियों की श्रद्धा व आस्था का केंद्र है.
शिवकुमार मिश्र का कहना है कि हमारे पूर्वज बताते थे कि जल्पा-कल्पा के दर्शन मात्र से ही सारा कष्ट अपने आप दूर हो जाता है.

  • सिकंदरपुर से संतोष शर्मा की रिपोर्ट

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