मेरा गांव इन वर्षों में कितना बदल गया! वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप की आंखोंदेखी

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ग्रामीण जीवनशैली, सोच और खेत-खलिहान में आधुनिकता दबे पांव अपना पैर पसार रही है. जब उत्पादन की प्रक्रिया बदलेगी तो उसका असर रहन-सहन पर भी पड़ेगा. हम पुरानी सोच के साथ नहीं रह सकते हैं.

 

खेती-किसानी में मशीनों का प्रयोग बढ़ा है. गेहूं की फसल लगभग पक गई है. हार्वेस्टर का इंतजार है. कटाई के लिए. श्रम का महत्व घटा है. मेरे गांव में खेतों की जुताई अब ट्रैक्टर से होती है. बैल अपनी प्रासंगिकता खो दिए हैं. उनकी जगह ट्रैक्टर ले चुका है. किसी के दरवाजे पर बैल नहीं है. बस..! कुछ लोग गाय-भैंस रखे हैं. अधिकांश लोग दूध खरीदते हैं. जब किसान मवेशी ही नहीं पालेंगे तो गोबर भी नहीं मिलेगा. इसी कारण अधिकांश लोगों का खाना रसोई गैस पर बनता है. जबकि सिलेंडर की कीमत अब लगभग एक हजार रुपये हो गई है.

 

बलिया जिले के मेरे गांव में बहुत पहले बिजली आ गई थी. जिसके कारण घरों में अब पंखा, फ्रीज, टीवी, मशाला पीसने की मशीन आदि ने अपनी पहुंच बना ली है. कई कांवेंट और नर्सरी स्कूल आसपास के गांवों में खुल गए हैं. शादी-विवाह, तेरही आदि किसी भी अवसर पर पहले लोग खुद ही मिलकर खाना बनाते थे. अब बाजार से खाना बनाने वाले आते हैं. सामूहिकता की भावना कम हुई है. उपभोक्तावाद की गिरफ्त में गांव भी आ गए हैं.

 

जाहिर सी बात है कि इससे सोच भी प्रभावित होगी. गुटबंदी बढ़ी है. पंचायत चुनाव में इसकी झलक स्पष्ट रूप से दिख रही है. कौन किसके साथ है और किसके विरोध में ? यह बता पाना मुश्किल है. रोज नए चुनावी समीकरण बन रहे हैं. देर रात तक मीटिगें चल रही हैं. नए-नए दांव चले जा रहे हैं. बिल्कुल वैसी ही गंवई राजनीति का रंग दिख रहा है, जो लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिलती है.

 

पहले कुछ लोग आत्मरक्षा के लिए बंदूक खरीदे थे. जिसके लिए उन्हें तीन साल में 60 रुपये लाइसेंस के नवीनीकरण का देना पड़ता था, अब नवीनीकरण शुल्क तीन साल का 1500 रुपये हो गया है. जबकि बहुत से लोग दो-तीन साल में बंदूक से कोई फायर भी नहीं किए हैं. पहले लोग कंधे पर बंदूक टांगे साइकिल या बाइक से इधर-उधर आते-जाते थे. बंदूक उनकी शान थी. अब इस शान को वे अपने कंधे पर टांगे हुए आना-जाना पसंद नहीं करते हैं. कंधे भी अब कमजोर हो गए हैं. बंदूक का वज़न ढोने का उनमें दमखम नहीं रह गया है.

 

आधुनिकता व मशीनीकरण का सबसे अधिक खामियाजा गाय के बछड़ों को उठाना पड़ा है. बछिया तो लोग रखते हैं लेकिन बछड़ों को सीवान में छोड़ देते हैं. प्रत्येक व्यक्ति दूसरे गांव में बछड़ों को छोड़ आते हैं. उनका काम सिर्फ फसल बर्बाद करना रह गया है. आदमी के साथ इन बछड़ों के रहने की आदत है, लिहाजा वे पुन: गांव में आ जाते हैं तो उनका स्वागत लठिया करके किया जाता है. खेत में लोग उन्हें पीटते हैं और गांव में घुसने पर भी. यही उनकी नियति बन गई है.

 

एक चीज और देखने को मिली, पहले गांव में सियार देखने को नहीं मिलते थे. अब वे रात में ही नहीं बल्कि दिन में भी घूमते हैं. कुत्ते उन्हें देखकर भोंकते नहीं हैं. कुत्ते सियारों से डरने लगे हैं. देसी कुत्ते पालना लोग अब पसंद नहीं करते हैं. विदेशी नस्ल के कुत्तों को पालने का शौख बढ़ा है. सियार अब लोगों से डरते नहीं हैं. यही चीज़ घड़रोज यानी नीलगाय में भी देखने को मिल रही है. डरना उन्होंने भी छोड़ दिया है. गौरैया भी गांव छोड़ दी हैं. गिद्ध भी नहीं दिखते.

 

यह बदलाव है जो दबे पांव गांवों में पैर पसार रहा है. सड़कें बनी हैं. सबके पास आने-जाने के लिए बाइक है. साइकिल का प्रचलन कम हुआ है. कुछ लोगों के पास चार पहिया वाहन भी हैं. अब बंदूक नहीं बल्कि कार प्रतिष्ठा की प्रतीक है. शहरी जीवनशैली गांव में भी आ गई है. यह गांव का विकास है और उसी के साथ रहने की तरीका, अब सीखना पड़ेगा. अधिकांश घर पक्के हो गए हैं. मिट्टी का एक भी घर मुझे नहीं दिखा. हो सकता है परिंदों के साथ छोड़ने का यह भी एक कारण हो.

 

गांव में बने अधिकांश पक्के मकानों में कोई रहने वाला नहीं है. घर में ताला बंद है. रोजगार की तलाश में गांव छोड़कर युवक बड़े शहरों में पलायन कर गए हैं. शहर में रोजगार की क्या हालत है ? यह अब किसी से छिपा नहीं है. बूढ़े बीमार हैं. असहाय..! चिकित्सा की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है. कुछ वृद्ध शहर में अपने बेटे-बेटियों के पास चले गए हैं और कुछ को उनके पुत्रों ने छोड़ दिया है. रामभरोसे..!

 

बंदूक की तरह अब किसी के कंधों में बूढ़ों का बोझ उठाने का दमखम नहीं है. जब खुद ही रोजगार की तलाश में युवा भटक रहे हैं तो दूसरों का बोझ वह कैसे उठा सकते हैं ? अधिकांश लोग गांव छोड़कर बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली आदि शहरों में घर बना लिए हैं. वहां भी उनके बच्चे उन्हें छोड़कर रोजगार की तलाश में किसी दूसरे शहर में चले गए हैं. पलायन..! एक नियति बन गई है. गांव से शहर और फिर उस शहर से किसी दूसरे शहर या विदेश में..!

 

पहले लोग कहीं भी नौकरी करने जाते थे तो पुन: लौटकर अपने गांव में आ जाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. भगदड़ मची है. यह विकास की घुड़दौड़ है. हम सब इसमें शामिल है. उसका स्वाद चखने को अभिशप्त हैं. स्वाद खट्टा है या मिट्ठा..! अब इसकी अनुभूति होने लगी है. परिवर्तन प्रकृति का सच है. इस सच को राजनीति की चासनी में सबको निगलना पड़ रहा है. गांव और शहर विकास की इस अंधी गुफ़ा में तेजी से घुसने की दिशा में अग्रसर हैं. समझ में नहीं आ रहा है कि हम आगे बढ़ रहे हैं या अपनी विरासत खो रहे हैं. विगत दस दिनों से इस बदलाव को मैं अपने गांव में रहकर समझने की कोशिश कर रहा हूं.

 

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप की रिपोर्ट)