पंचायत चुनाव और गंवई राजनीति- वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप की नजर से देखिए

बलिया. गांव की राजनीति में भी राजधानी की हवा का असर देखा जा सकता है. घात-प्रतिघात और दावतों का दौर चल रहा है. 2015 में बलिया जिले का मेरा गांव एसटी सूची में था. इस वर्ष पहले पिछड़ा वर्ग में घोषित हुआ था, फिर सामान्य सीट में शामिल कर दिया गया.

 

जब दलित सीट में आया तो उसके समीकरण के मुताबिक कुछ प्रत्याशियों को लोगों ने घोषित किया. कुछ तो खुद ही अपने को ग्रामप्रधान पद का प्रत्याशी घोषित कर दिए. अब जब यह सामान्य सीट कर दी गई है तो पहले के प्रत्याशी बैठने को तैयार नहीं हैं. जबकि चुनावी समीकरण बदल गया है और उसी के मुताबिक नए प्रत्याशी मैदान में ताल ठोक रहे हैं. कई लोगों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है.

 

चुनावी राजनीति के कुछ महारथी भी हैं जो खुद चुनाव नहीं लड़ते हैं लेकिन पर्दे के पीछे से चुनावी गणित को बनाने-बिगाड़ने का दम-खम रखते हैं. ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा और विधानसभा चुनाव में देखने को मिलता है. मुर्गा पार्टी और शराब की बोतल बांटने का सिलसिला भी शुरू हो गया है. आसपास के गांवों में भी फिलहाल चुनाव के दौरान बैठकों का सिलसिला जारी है.

 

इन बैठकों में रणनीति बनती है और दूसरे खेमे की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करके उसकी काट खोजी जाती है. यानी जासूसी..! कुछ लोग इसी काम में लगे हैं. बेरोजगार नौजवान फिलहाल चुनावी समीकरणों को साधने की कसरत में व्यस्त हैं. यह भी बदलती गंवई संस्कृति में आसान नहीं है. कदम-कदम पर राजनीति है. प्रत्येक खेमे ही नहीं बल्कि घर में भी सेंध लगाने की कोशिशें चल रही हैं.

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यह मत समझिए कि सिर्फ राजनीतिक समीकरण ही बन रहे हैं, बल्कि कुछ लोगों के ऊपर देवी-देवताओं का भी असर देखने को मिल रहा है. मसलन एक प्रत्याशी नीम के पेड़ पर चढ़ कर चिल्लाने लगे कि उनके ऊपर दुर्गा देवी की सवारी आ गई हैं और ऊपर से कूदने का आदेश दे रही हैं. बस..! देखते-देखते वे कूद गए और पैर टूट गया. इसी प्रकार एक प्रत्याशी के ऊपर हनुमान जी आ गए और उनके आदेश पर छत से कूद गए. घायल हुए और अस्पताल पहुंच गए.

 

गंवई राजनीति के समीकरण को साधने में बूढ़े और युवा भी जुटे हैं. नौकरी से रिटायर हुए लोगों के लिए पंचायत चुनाव मनोरंजन का साधन बन गया है. हालांकि उनकी प्रासंगिकता अब खत्म हो गई है. परिवार में भी बूढ़े बोझ बनते जा रहे हैं. इसके बावजूद वे अपनी प्रासंगिकता साबित करने में लगे हैं. यही जिंदगी है. बदलते समय के अनुसार कदमताल करना जरूरी है. नहीं तो बीपी बढ़ने-घटने लगेगी. कई प्रत्याशियों के समर्थकों की बीपी बढ़ गई है तो कुछ की घट रही है.

(बलिया से वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप की रिपोर्ट)