जंगलों के खत्म होने के साथ ही वन्य प्राणियों का होने लगा विनाश

विश्व वन्य दिवस 3 मार्च पर विशेष

 

  • अमरनाथ मिश्र पीजी कालेज दूबेछपरा के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डॉ. गणेश कुमार पाठक से  भेंटवार्ता
  • आईपीबीइएस की एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक 40 प्रतिशत जीव प्रजातियां लुप्तप्राय

अमरनाथ मिश्र पीजी कालेज दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य पर्यावरणविद् डॉ. गणेश कुमार पाठक ने एक भेंटवार्ता में बताया कि वन्यजीवों का विनाश खासतौर से अनियंत्रित रूप से किए गए वन विनाश की देन है.

उन्होंने कहा कि यह वन विनाश अंधाधुन्ध विकास एवं मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया गया. वनों के विनाश से जीव- जंतुओं की प्राकृतिक शरणस्थली भी समाप्त होती गयी.

डॉ. पाठक ने कहा कि वन कटने से और वन्यजीवों के विनाश से पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित होती जा रही है, जिससे अनेक प्राकृतिक आपदाएं उभरकर मानव का भी विनाश करने को तत्पर हैं.

उन्होंने बताया कि आईपीबीइएस की एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक 40 प्रतिशत जीव प्रजातियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं. 1556 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं. 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं. हर चार में से एक प्रजाति विलुप्ति के कगार पर है.

डॉ. पाठक ने बताया कि 6190 स्तनधारी प्रजातियों में से 559 विलुप्त हो गयी हैं और 1000 प्रजातियों के विलुप्त होने की सम्भावना है. समुद्र में भी बढ़ते प्रदूषण से 267 समुद्री प्रजातियों के लिए संकट बरकरार है.

उन्होंने बताया कि संयुक्तराष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार कुछ दशकों में ही 10 लाख से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी.

 

 

डॉ. पाठक ने बताया कि आईबीपीइएस की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले दशक में धरती की अनुमानित 8 मिलियन जीवधारियों एवं पादपों की प्रजातियों में से करीब एक मिलियन प्रजातियों के विलुप्त होने की सम्भावना है.

डॉ. पाठक ने बताया कि पृथ्वी की 75 प्रतिशत भूमि एवं 66 प्रतिशत समुद्री पर्यावरण में विशेष बदलाव आया है. आर्द्र भूमियों में से 86 प्रतिशत भूमि क्षेत्र समाप्त हो गया है. 40 प्रतिशत उभयचर एवं 33 प्रतिशत जलीय स्तनधारी प्रजातियाँ विलुप्त होने को हैं.

उन्होंने बताया कि मानवीय गतिविधियों से 680 कशेरूकी प्रजातियां विलुप्त होने को हैं. ज्ञात 5.5 मिलियन कीटों की प्रजातियों में करीब 10 प्रतिशत पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है. वहीं, 3.5 प्रतिशत घरेलू प्रजाति के पक्षी विलुप्त हो चुके हैं.

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डॉ. पाठक ने बताया कि अब तक 68 प्रतिशत वैश्विक वन नष्ट किए जा चुके हैं. वन के नष्ट होने से आज जल, जंगल, जीव, जमीन और जीवन के लिए घोर संकट उत्पन्न हो गया है.

बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में वन्यजीवों का घोर अभाव

बलिया जनपद सहित पूरे पूर्वांचल के जनपदों में वन एवं वन्यजीवों की स्थिति भयावह है. इसका कारण इन क्षेत्रों में प्राकृतिक वन नहीं के बराबर हैं. प्राकृतिक वनस्पतियों के नाम पर झाड़ियां,मूंज, नरकल आदि ही देखने को मिलते हैं.

डॉ. पाठक ने बताया कि मानव के लगाये वृक्ष भी दो से तीन प्रतिशत तक ही हैं, जबकि 33 प्रतिशत भूमि पर वनों का विस्तार होना चाहिए. जहां तक बलिया जनपद का प्रश्न है तो यहां कि स्थिति और भयावह है.

उन्होंने बताया कि इस जनपद के गंगा और घाघरा नदियों के दियारे क्षेत्र में एवं जिले के पश्चिमी क्षेत्र में अर्थात् बांगर क्षेत्र में कुछ प्राकृतिक वनस्पतियां मिल जाती थीं, जिनमें अनेक तरह के छोटे- बड़े जीव जन्तु दिख जाते थे.

उनमें हिरन, उदबिलाव, जंगली सुअर, खरगोश, जंगली बिल्ली, नीलगाय, शाही, सियार, खरहा, चूहे, अनेक तरह के सर्प-पक्षियाँ कुलांचे भरते एवं कलरव करते दिखते थे. इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में इनकी अहम् भूमिका होती थी.

दुर्भाग्यवश ये प्राकृतिक झाड़ियां भी समाप्त हो गयी. साथ ही ये जीव- जंतु भी समाप्त हो गये. मानव द्वारा लगाए गये बाग- बगीचे भी समाप्त कर दिए गये. जनपद में पारिस्थितिकी संकट चरम पर है ,जिसका खामियाजा भी हमें भूगतना पड़ रहा है.

प्रश्न यह है कि वन्यजीवों का संरक्षण कैसे किया जाय. यदि हम अपने देश के परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है, जिसमें पूरी प्रकृति के संरक्षण की विचारधारा प्रस्तुत है.

खासतौर से वन एवं वन्यजीव के संरक्षण की बात देखें तो हमारी संस्कृति में वृक्षों की पूजा का विधान बनाया गया है, ताकि उनका संरक्षण किया जा सके. हिंसक एवं अहिंसक जीवों की सुरक्षा हेतु उन्हें देवी- देवताओं का वाहन बना दिया गया.

आज हमें पुनः इन अवधारणाओं को जानने एवं जनजागरूकता फैलाने की आवश्यकता है, ताकि वनवृक्षों एवं वन्यजीवों को बचाकर पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की सुरक्षा की जा सके.