(युवा लेखक / ब्लॉगर)
गाँव मे लक्ष्मण दुबे सुबह टहलते हुए गाँव के ही कुछ नौजवानों में चंदन से पूछते है “का रे! चन्दनवा का करत बाड़े आजकाल?
चंदन के पास कोई जवाब नहीं है, फिर भी वह जवाब देता है कि “बाबा! एसएससी अउरी सिपाही के तैयारी करत बानी..”
लक्ष्मण दुबे फिर पूछते है कि “कइसन तैयारी करत बाड़े, तू त दिन भर चट्टी-चौराहा अउरी घूमते लउके ले…
अब चंदन चुप है और बाबा से कन्नी काटकर मुँह फेर लेता है…
यही वास्तविकता है जिसे युवाओं ने अपनी नियति मान लिया है..
खैर……
भटके हुए युवा महज कश्मीर में नहीं है, बल्कि ये जमात देश के हर कोने में है, जो हाईस्कूल तक या उससे अधिक cbse से पढ़ते हैं, फिर किसी भी अनजाने विश्वविद्यालय या गाँव गिराने के किसी महाविद्यालय से ग्रेजुएशन करते हैं, फिर अपना दायित्व समझते हुए किसी भी छुटभैया नेता के साथ झंडा ढोते हैं. नारे लगाते हैं या उसकी जमात में घूमते हैं.
और हर पार्टी हर नेता इस भेड़चाल का भरपूर लाभ भी ले रही है, कोई सदस्यता अभियान चलाकर कर सबको पार्टी की डिग्रियां बांट रहा है तो कोई नौकरी का लालच देकर नारे लगवाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है.
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आजकल कोई भी चर्चा ‘युवा’शब्द से होकर ही आगे गुजरती है. किसी भी चर्चा में युवा होता है, लेकिन चर्चा मुकम्मल तब होती जब उसमें युवा का, युवाओं के लिए- बुजुर्गों के द्वारा बात हो.
रोज़गार, नेता, शिक्षा और यहाँ तक की देश, सबके केंद्र में युवा है. भारत एक युवा देश है, भटके हुए युवा, सहमे हुए युवा, रोज़गार मांगते युवा, कॉम्पिटिशन की तैयारी में लगे युवा, सड़कों पर आंदोलन करते युवा, कॉल सेंटर में ज़िंदगी खपाते युवा, जहां नज़र दौड़ाओ वहां युवा ही युवा हैं. हर नेता की रैली में युवा और हर नेता की ज़ुबान पर युवा है. ऐसा लगता है कि देश में युवा ही युवा है और भारत की राजनैतिक जमात युवाओं के लिए चिंतित और समर्पित है. इसी समर्पण का नतीजा देखिए कि भारत में ‘युवा दिवस’भी इस जोश के साथ मनाया जाता है कि मानों अगले दिन से युवाओं के सारे सपने पूरे हो जाएं. टीवी से लेकर मंच तक युवा-युवा-युवा के शोर के बीच एक दिन इस युवा की नज़र संसद की कार्यवाही के दौरान टेबल थपथपाते हाथों पर गई तो देखा कि देश की संसद में युवा सफ़ेद चावलों के बीच कंकड़ के समान नज़र आ रहे थे. मतलब युवा देश की संसद से युवा ही गायब है?
फिर किसलिए झंडा ढोते हो, अगर राजनीति ही करनी है तो तुम्हारी खुद की क्या विचारधारा है.
राजनीति समर्पण मांगती है फिर तुम ऐसी पृष्ठभूमि से आते हो जहां तुम्हारे पिता इस सपने के साथ बड़े किये है कि उन्हें खेत-खलिहान, मजदूरी, रिक्शा चलाने, दूध बेचने और धूप में तपने से निजात मिले..
तुम्हारी दो कौड़ी की राजनीति और झंडा ढोने ने तुम्हारे पिता की हड्डियों को गला दिया, कल परिवार इस उम्मीद में था कि तुम पढ़ लिखकर दो पैसा लाते और बहन की शादी में पिता का सहयोग करते पर तुम सहयोग कहा से करते तुमने तो अपने खर्चे से उन्हें कर्ज में डाल दिया.
अंत मे उन 10 लोगों की नमस्कारी इतनी भारी पड़ेगी की दुनिया हिल जाएगी, ये एक भरम है जो समय के साथ टूटता है, तुम्हारा भी टूटेगा और जब टूटेगा तो पीछे बहुत कुछ छूट गया होगा, फिर वही लक्ष्मण दुबे याद आएंगे…..
(लेखक के फेसबुक कोठार से साभार)