…..सब कुछ बदला, पर जो नहीं बदला वो है कोरे वादे, किसानों का दर्द और नौजवानों की बेरोजगारी

माघ गयो दिन उन्नतीस बाकी
मिंकु मुकेश सिंह 

(युवा लेखक/ब्लॉगर)

इस देश में किसान होना सबसे बड़ा गुनाह है. तस्वीरें देख कर कलेजा फट जा रहा है, क्योंकि मैं भी एक किसान का बेटा हूँ और मेरी परवरिश उसी मिट्टी में हुई है, जिसे शहरों के लोग गंदगी कहते है. साहब! 2014 के बाद से सब कुछ बदला, पर जो नहीं बदला वो है कोरे वादे, किसानों का दर्द और नौजवानों की बेरोजगारी.

सड़क पर हक के लिए आओगे तो लाठी खाओगे ये तय है…. तुम पढ़ लिखकर नौकरी मांगोगे तो सरकार तुम्हे पकौड़े बेचने के लिए कहेगी तुम्हारे पिता अगर खेती और किसानी कर के अपनी फसल का उचित कीमत मांगेंगे तो उन्हें बुढ़ापे में लाठी खानी होगी… किसानों को अन्नदाता कहने वाले तमाम दल विपक्ष में रहते हुए किसानों के सबसे बड़े रहनुमा होते हैं और सत्ता में आने के बाद किसान हाशिए पर छूट जाते हैं. तमाम योजनाएं बनती हैं. हर साल कृषि के बजट में इजाफा होता है. हर साल नई सिंचाई परियोजनाओं की घोषणाएं होती हैं.

This item is sponsored by Maa Gayatri Enterprises, Bairia : 99350 81969, 9918514777

यहां विज्ञापन देने के लिए फॉर्म भर कर SUBMIT करें. हम आप से संपर्क कर लेंगे.

देश के सात राज्यों के किसान दस दिनों की हड़ताल पर चले गए हैं. उनका कहना है कि शहरों को न तो सब्जी भेजेंगे और न ही दूध की सप्लाई करेंगे. देश के करीब सवा सौ किसान संगठनों की तरफ से इस हड़ताल का आह्वान किया गया है. किसानों की मुख्य मांग एमएसपी पर फसलों की सरकारी खरीद की व्यवस्था करना है. किसान तो फल और सब्जियों की सरकारी खरीद की भी बात कर रहे हैं. अन्नदाता सड़क पर है. वह सड़क पर दूध की नदियां बहा रहा है. सड़क पर टमाटर, आलू, गोबी और अन्य सब्जियां फैंक रहा है. वह नारें लगा रहा है. वह रो रहा है. वह आत्महत्या कर रहा है. वह सरकार को वायदे याद दिला रहा है. वह कह रहा है कि खेती से अब पेट नहीं भरता. वह लागत का हिसाब गिना रहा है. वह बता रहा है कि कैसे खर्चा तक पूरा नहीं होता है. कैसे आढ़तियों के चंगुल में है, कैसे सरकारी खरीद में धांधली होती है, कैसे बिचोलिए उनका हक छीन ले रहे हैं, कैसे सरकार समय पर मदद नहीं करती है, कैसे फसल बीमा कंपनी मुआवजा देरी से देती है और आधा अधूरा ही देती है, कैसे बंपर फसल में भी नुकसान होता है और कम उपज होने पर भी दाम नहीं मिल पाते हैं.

हर साल कृषि के बजट में इजाफा होता है. हर साल नई सिंचाई परियोजनाओं की घोषणाएं होती हैं. लेकिन हर साल किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं. हर साल खबरें आती हैं कि हजारों की संख्या में किसान खेती छोड़ मनरेगा के तहत मजदूरी करने लगे हैं. कभी मानसून रुठता है तो कभी सरकारें दगा दे जाती हैं. राजस्थान में अकाल सूखा पड़ना आम बात रही है. वहां एक कहावत है….राम रुठे, राज न रुठे. यानि भले ही रामजी रुठ जाएं और मानसून दगा दे जाए, लेकिन राज यानि राजा को अपना फर्ज निभाना चाहिए. लेकिन लोकतंत्र के राजा घोषणा पत्र तक ही सीमित नजर आते हैं. ऐसे में किसान सड़क पर नहीं उतरे तो क्या करे….. (फेसबुक वाल से साभार)