प्रकृति संरक्षण को संस्कार में लाना होगा : डा० गणेश पाठक

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“पृथ्वी दिवस” पर पीजी कालेज दुबेछपरा के प्राचार्य डा. गणेश पाठक के विचार

आज पृथ्वी दिवस पर जगह-जगह-जगह गोष्ठियां आयोजित हो रही हैं. जन जागरूकता पैदा की जा रही है, एवं अनेक तरह के कार्यक्रम किए जा रहे हैं. जो पृथ्वी को बचाने में अहम भूमिका निभायेंगें. किन्तु जब तक हम प्रकृति संरक्षण को अपनी दिनचर्या में शामिल कर संस्कार में नहीं लायेंगें और कार्ययोजना के रूप में धरातल पर कार्य नहीं करेंगें तब तक कुछ होने वाला नहीं है.

आज पर्यावरण संरक्षण की बात सैद्धांतिक रूप से बढ़ चढ़ कर की जा रही है. जिसके कुछ सार्थक परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं. किन्तु यदि हम अपने भारतीय संस्कृति का अवलोकन करें तो पता चलता है कि प्रर्यावरण संरक्षण की बात तो हमारे भारतीय वांगमय में अर्थात वैदिक ग्रंथों, पुराणों, स्मृतियों, बौद्ध ग्रंथों, जैन ग्रंथों अन्य प्राचीन ग्रंथों में भरी पड़ी है.

हम तो सदैव से प्रकृति पूजक रहे हैं. यही कारण है कि अभी तक हम बचे हुए हैं.
हमारे भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के प्रत्येक घटकों के संरक्षण का विधान है. क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर प्रकृति के इन पांच मूल तत्वों की सुरक्षा एवं संरक्षण को ध्यान में रखकर ही हम इन सबकी पूजा करते हैं. हमारे यहां वृक्षों, पशुओं, जल स्रोतों, सूर्य, वायु, आकाश एवं अग्नि की पूजा की जाती है. प्रर्यावरण का कोई भी तत्व ऐसा नहीं है जिसकी हम पूजा न करते हों. हम तो सदैव से प्रकृति पूजक रहे हैं.
हम सभी किसी न किसी रूप में भगवान की पूजा करते हैं. भगवान की पूजा ही प्रकृति पूजा एवं पर्यावरण के कारकों की पूजा है. कारण कि भगवान शब्द ही प्रकृति के मूल पांच तत्त्वों से मिलकर बना है. अर्थात भ से भूमि, ग से गगन ( आकाश), व से वायु, अ से अग्नि एवं न से नीर (जल).
इस प्रकार यदि हम सही अर्थों में भगवान की पूजा करते हैं तो हम प्रकृति की पूजा एवं सुरक्षा करते हैं.
किन्तु कष्ट इस बात का है कि हम पश्चिमी सभ्यता के रंग में दिन प्रतिदिन दिन रंगते जा रहे हैं और अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, पहचान एवं प्रकृति के जुड़ाव से अलग होते गये. आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पुनः अपनी पुरानी विरासत अर्थात संस्कृति, सभ्यता, परम्परा एवं प्रकृति से जुड़ाव को पहचाने. उसे अपनायें एवं आम जनता को उससे अवगत करायें तो पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति संरक्षण हेतु हमें बहुत भाग दौड़ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अगर पृथ्वी को बचाना है तो हमें अधिक से अधिक वृक्ष लगाना होगा, और “माता भूमि: पुत्रो अहम् पृथ्विव्या: ” की भावना का पालन करना होगा.