फितरत ‘तबीयत से मिलनसार’ हो तो तबियत आड़े नहीं आती….

अगर फितरत ‘तबीयत से मिलनसार’ हो तो तबियत आड़े नहीं आती…. इसका भी कहीं न कहीं माटी से ही कनेक्शन होगा… लेखन-साहित्य जगत में डॉ जनार्दन राय जी जैसी शख्सियतों की शिनाख्त ही बलिया की खांटी माटी से होती है… ‘गांव क माटी’ उनकी एक कृति भी है….

  • विजय शंकर पांडेय

 

खांसी आड़े आई तो दरकच दिया और धसेर कर लंबी बातचीत का सिलसिला जारी रखा…. बात शुरू हुई काशी की विद्वत परंपरा के संवाहक पं. सीताराम चतुर्वेदी से…. तो बरास्ते डॉ मुक्तेश्वर तिवारी ‘बेसुध’ उर्फ चतुरी चाचा….. डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र पर आकर थमी….

माटी की गमक उन्होने परोसा भी… संगी पत्रकार कृष्ण कांत पाठक बलिया की तासीर के पहुंचे हुए फकीर हैं, इसलिए जरा अचकचा गए…. तो राय साहब तुरंत फॉर्म में आ गए… मडुआ का लड्डू… अब आप तो नहीं ‘चिहा’ गए… अममून ऐसे ही अवसरों पर लोग ‘चिन्हा’ जाते हैं. मेरे लिए यह शब्द अपरिचित नहीं… मगर बतौर खाद्य जरूर पहली बार पाला पड़ा… जबकि मैं उसकी तासीर से ही नावाकिफ हूं…. फिर भी मीठा मान कर गटकने से नहीं चूका….

कभी मेरे मित्र जगधारी जी ने मुझे बताया था कि मडुआ की पैदावार अच्छी होने के चलते ही इलाके का नाम ही मंडुआडीह पड़ गया. मड़ुआ, कोदो, टांगुन, सांवा, वगरी, सरया आदि खांटी देसी क्रॉप हैं…. न्यूनतम लागत और कम मेहनत में कभी किसानों के कोठार को लबालब ये फसलें भर देती थी…. मगर अब यह लगभग लुप्त प्रजातियां हैं…. डिजिटल जेनरेशन को इसके बारे में जानने और समझने के लिए किसी ‘अजायबघर’ में जाना पड़ेगा…

बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि किसी दौर में तो गरीबों की सर्दी कोदो से कट जाती थी…. क्योंकि इसकी तासीर गर्म होती है… पेट तो भरता ही था… इसके पुआल गद्दे और रजाई से कहीं ज्यादा मजे देते थे…. यह राय मेरे निजी अनुभवों के आधार पर है…. जिस जमाने में टेंट हाउस और हॉलों का चलन नहीं था…. कई तिलक और विवाह इस पुआल के बूते निपट जाते थे…

कई बीमारियों के लिए रामबाण है सांवा…. इसी प्रकार मड़ुआ की रोटी या लड्डू से गठिया या कमर दर्द से निजात मिलती है…. कमजोरी से भी मुक्ति का अचूक नुस्खा है… यही लड्डू हमें परोसा गया था…. पाठक जी ने बताया कि मड़ुआ के लड्डू में घी और गुड़ का प्रयोग जरूरी है…. वरना खतरे की घंटी भी बज सकती है…

टांगुन फसल तो खेत में देखते बनती थी. इसकी बालियां जब खेत में लटकती थी…. तो यह शोभा देखने लायक होती थी…. इन प्रजातियों का गुण यह भी था कि ये खराब से खराब खेत में भी अच्छी उपज दे देती थी…
धन्यवाद……

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