गांव मर रहे हैं…और मारे जा रहे हैं

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मिंकु मुकेश सिंह
युवा लेखक/ब्लॉगर

मैं भी गांव का रहने वाला हूं और गांव से मुझे उतना ही लगाव है, जितना 18 साल के किशोर को अपनी गर्लफ्रेंड से होता है. जाहिर है…मैं गांव के अंदर पल रहे एकाकीपन को महसूस करता हूं.
गांव मर रहे हैं…और मारे जा रहे हैं.

अभी दोआब क्षेत्र में बाढ़ आयी है,गंगा मईया, घाघरा,सरयू जी ने आपसी सहमति ई फैसला किया है कि सबको डुबो कर मार देंगे, ऊपर से आये दिन इंदर भगवान तहलका मचाये रहते हैं किसान बेचारा का करे? बाढ़ का कहर चल रहा है.. एक्को गो मकई, जनेरा, धान में दाना नहीं धरेगा…….जो लागत लगाए उ भी डूबेगा…. काहे करें खेती…

ये बात एक किसान के जवान बेटे की है जो अब खेती नहीं करना चाहता है, ज़मीन बहुत है लेकिन कहता है कि खेती से पेट नहीं भरता.. बात भी सही है ‘प्रदुमन चाचा आपन जिनगी खेतीये-बारी में बिता दिए..आपन परिवार के भरण-पोषण से अधिक नाही कर पाए…अब खाट पर बैठकर दिन-दुपहरी सबको गरियाते रहते हैं.

दो बेटियां थी बिना जांचे-परखे जैसे-तैसे बियाह कर दिए…अब उ बेचारिन के का गलती जो ससुराल में नौकरानी बन के जी रही है, दो बेटा, एक जइसे भी बीए. करके सूरत साड़ी बनाने की फैक्ट्री भाग गया, दूसरा गांव पर मवेशी खिलाता है साथ में बाबू जी की कर्णप्रिय गाली सुनता है, ताश खेलता है और कभी-कभी शराब-गांजा भी लगा लेता है और रात को खेसारी लाल यादव, निरहुआ और काजल राघवानी की भोजपुरी फिल्में अपने मोबाइल में ही देख लेता है और चादर तान के सो जाता है.

पर इससे जीवन तो चलता नहीं है
अब उसने भी अपनी ज़मीनें बेचने का फ़ैसला कर लिया है और कहता है कि सारा पैसा बैंक में रखूंगा तो जो ब्याज़ मिलेगा वो भी खेती से ज्यादा है.

बात वाजिब है….कौन माथापच्ची करे..ट्रैक्टर मंगाए, ज़मीन जोते, बीज बोए, खाद डाले, रातों को जग कर फसल की रखवाली करे. बारिश न हो तो बोरिंग चलवाए… फिर कटाई में मज़दूर खोजे और हिसाब करे तो पता चले कि लागत भी मुश्किल से निकल रही है…

बैंक से पैसा निकालेगा, अनाज खरीदेगा, गाड़ी खरीदेगा, मॉल में जाएगा शॉपिंग करेगा और मज़े से जिएगा….जैसे सब जीते है.

मैंने पूछा कि बात तुम्हारी ठीक लेकिन अगर सारे किसानों ने यही कर दिया तो क्या होगा… जवाब मिला…. गेहूं महंगा होता है तो मिडिल क्लास बाप बाप करने लगता है…. उसको सस्ता में खिलाने का हमने ठेका ले रखा है….

बात साफ है भइया…. अपर क्लास को आपसे कुछ चाहिए नहीं वो इतना सामर्थ्यवान है कि मज़े से जी लेगा, गरीब को जब मेहनत कर के ही खाना है, बिना बैंक बैलेंस इकट्ठा किये मर जाना है तो वो भी अपने दाल-रोटी भर कमा लेगा और झोपड़ी के बाहर मच्छरदानी लगा के 4-6 घंटे खर्राटे मार लेगा.. अब मिडिल क्लास/मध्यमवर्गीय अपना सोचे.. बच्चे कॉन्वेंट में पढ़े कि नही, शर्मा जी के लड़के से मेरा लड़का तेज है कि नही, कार लिए की नही, शहर में फ्लैट लिए की नही, कोई प्लाट खरीदे की नही, अच्छे हॉस्पिटल में इलाज होता है कि नही, शॉपिंग मॉल से खरीदारी होती है कि नही, घर मे वालपुट्ठी लगा कि नहीं, टीवी बड़ी है कि नही, फ्लाइट में चढ़े की नही, वाटरपार्क जाते हैं कि नही, जीवन बीमा किये की नही, बचत खाता,एफडी, डोमिनोज, केएफसी, पिज़्ज़ा, बर्गर, होटल, खाना, रबड़ी, मलाई, ट्रैफिक चलान, कोर्ट-कचहरी, मुर्गा-बकरा…..फलाना-ढिमका….

और अंत मे कश्मीर,धारा 370,राम मंदिर,गाय…खैर…

हे! सरकार…. जैसे सड़क दुर्घटना कम करने के लिए जुर्माना बढ़ा दिए वइसे ही किसानों की दशा सुधारने के लिए कोई उपाय कर दो ना?

हे! मालिक… हमारे अनाज को कौड़ियों के भाव लेकर बाज़ार में भाव का खेल खेला जाता है कुछ रहम हमपर भी कर दो ना?

हे! स्वामी… 2 रुपये के मकई के दानों का लावा भूनकर सिनेमाघरों में 100 रुपये का बेचा जाता है हमें इस धोखे से बचा लो ना?

हमे तो लगता है कि वो दिन दूर नहीं जब सरकारी संस्थाओं के निगमीकरण और निजीकरण का माहौल चल रहा है वैसे ही कृषि सुधार और किसान उन्मूलन के नाम पर भारतीय कृषि में कारपोरेट को घुसेड़ दिया जाए….
सोचिएगा!