क्या चंड़ीगढ़ की वर्णिका कुंडू की तरह बचाई जा सकती थी बलिया की बेटी रागिनी दुबे
आशीष त्रिवेदी (कल्चरल एक्टिविस्ट)
दो दिन से रागिनी की हत्या के बारे में लिखने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन नहीं लिख पा रहा हूं. क्या लिखूं कि बहुत गलत हुआ! अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए! इस घटना की कड़ी निंदा करता हूं! …यही तो सब बोल रहे हैं, लिख रहे हैं…. वर्षों से….. और घटनाएं रुकने या कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है. दामिनी से लेकर रागिनी तक आखिर कौन है इसका जिम्मेदार.
सिर्फ मोमबती जलाने कड़ी निंदा करने से हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते. हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो सम्वेदन शून्य होता जा रहा है. आम आदमी के अंदर डर और भय व्याप्त है. महिलाएं लड़कियां कहीं सुरक्षित नहीं. सरकार अपनी उपलब्धियां गिनाने में व्यस्त है. पुलिस और प्रशासन पंगु बना हुआ है. आखिर हम अपनी अपने परिवार और समाज की सुरक्षा के लिए किससे गुहार करें. हमे खुद को जगाना पड़ेगा अपने आप से कुछ सवाल भी करने होंगे कि ऐसी घटनाएं न घटें. इसके लिए हमारी भी कुछ जिम्मेदारी है. क्या हमने कभी किसी प्रकार का कोई प्रयास किया. सच तो यह है कि सोशल साइटों पर कड़ी निंदा करने वाले जब कभी ऐसी घटना अपनी आँखों से देखते हैं, तो आँख-कान बंद कर वहां से निकल जाते हैं.
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दोस्तों यह एक बहुत खतरनाक समय है. अपने आपको अपनी संवेदना को नहीं जगा पाए तो संभव है अगली घटना आपके साथ हो और आपका साथ देने वाला कोई न बचा हो. अपने अंदर प्रतिरोध की संस्कृति को जगाइए रोना रोने से कुछ नहीं होना. सरकार तो जश्न मनाने में व्यस्त है.