चकिया/बैरिया (बलिया) से वीरेन्द्र नाथ मिश्र
हिंदी कविता में नए बिंबों के प्रयोग के लिए जाने जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर केदारनाथ सिंह के निधन की मनहूस खबर सोमवार की रात 9:00 बजे के लगभग उनके पैतृक गांव चकिया पहुंच गई थी. इस खबर ने लोगों के मन में एक हूक सी पैदा कर दी. रात में ही कुछ लोग उठ कर एक घर से दूसरे घर जाकर लोगों को जगा कर धीमे धीमे बात कर सुबह का इंतजार करने लगे. करते भी क्यों नहीं. राष्ट्रीय क्षितिज पर अपने साथ अपने गांव का नाम जगमग करने वाले डॉक्टर केदारनाथ सिंह बाहर रहते हुए भी अपने गांव को अपने से दूर नहीं होने दिए. चाहे उनकी रचनाएं हों, या फिर यहां के जड़ों से उनका जुड़ाव. दुनिया के लिए डॉक्टर केदारनाथ सिंह गांव के लोगों के लिए केदार, केदार चाचा, केदार बाबा ही बने रहे.
उनके कुटुंब के ही उनके मित्र के बेटे यशवंत सिंह बताते हैं कि डॉक्टर साहब में लोक संवेदना व ग्रामीण संवेदना कूट कूट कर भरी थी. वह अक्सर कहा करते थे कि जसवंत मैं दिल्ली रहता जरूर हूं, पर दिल्ली से हाथ नहीं मिला पाता. मेरा मन गांव में ही उलझा रहता है. जब भी मौका मिलता डॉक्टर साहब साल में दो तीन बार गांव जरूर आते. यहां लोगों से मिलते. खांटी भोजपुरी में बात करते हुए खेती, किसानी, बच्चों की पढ़ाई की बात करते और दुनिया की बात भी लोगों को बताते.
गांव पर रह रहे डॉक्टर साहब के भतीजा शैलेश सिंह बताते हैं कि पिछली बार वह 20 नवंबर को आए थे. कह कर गए कि बिटिया की शादी तय कर लो, शादी में आऊंगा तो पूरा एक महीना रहूंगा. कौन जानता था कि यह उनका अंतिम आगमन था.
डॉक्टर साहब जब भी गांव आते अपने मित्र रमाशंकर तिवारी के साथ पैदल 4 किमी दूर पैदल चल कर रानीगंज बाजार जरूर आते थे. तिवारी जी से चुहलबाजी करते हुए लकठो, पटउरा मिठाई खिलाने की बात करते. बाजार में अनिल शर्मा की दुकान पर बैठते. वहीं कुछ लोग आकर उसे मिलते थे. ऐसा साल में तीन चार बार होता था. पंडित रमाशंकर तिवारी डॉक्टर साहब से उम्र में दो-तीन साल बड़े हैं. उनके निधन के सूचना पर मर्माहत हैं. पूछने पर उनके साथ बिताए किस्से और मजाकिया यादें सुनाने लगे. वही अनिल शर्मा ने डॉक्टर साहब की ही कविता सुनाई.
जाऊंगा कहां
रहूंगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूंगा.
डा साहब के निधन से चकिया ही नहीं पूरा जनपद शोकग्रस्त है.