गुरु पूर्णिमा : कलम के सृजनात्मक इस्तेमाल का ककहरा

मिथिलेश कुमार सिंह

आज गुरु पूर्णिमा है और मुझे याद आ रहे हैं अपने गांव के मिडिल स्कूल के रामजी पंडित. याद आ रही उनकी छड़ी बरसाने की कला और लात- घूंसों से ठुकम्मस का वह अंदाज कि आज भी पुरवा चलती है तो पोर पोर परपराने लगता है.

मुझे याद आ रहा है मऊ का बाल निकेतन स्कूल और याद आ रही है माधुरी दी, जिसने बगैर कैफियत पूछे मेरा कान मरोड़ा था और मैं घंटों रोता रहा था. हुआ यूं कि मैं पेंसिल साज रहा था और नोक ज्यों बन कर तैयार होती, मेरी बगल में बैठा एक खुराफाती पेंसिल कटर हिला देता. नोक टूट जाती. फिर साजो, फिर वही खुराफात. पेंसिल घिस कर आधी हो गयी. मैंने पेंसिल उसके पेट में दे मारी. खून बहा कि नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन अगला इतने जोर से चीखा कि पूछिये मत. इधर क्लास चल रहा था. यहीं से शुरू होता है माधुरी दी का रोल. माधुरी दी बाद में इंटर कालेज में पढ़ाने लगी और मेरा पिंड छूट गया कुछ महीनों बाद उस स्कूल से. यह दर्जा तीन का वाकया है.

मुझे मऊ का डिग्री कालेज याद आ रहा है और याद आ रहे हैं डॉक्टर उमाशंकर तिवारी, सीडी राय और एलपी लाल. तिवारी जी पहले शख्स थे, जिन्होंने पहचाना कि कुछ है इस बच्चे में जिसे सर्जनात्मक आकार दिया जा सकता है. उनके गीतों ने वह जादू किया उस शोख और लंपट बच्चे पर कि वह वाकई संजीदा हो गया. लिखने और सृजनात्मक होने और दिखने के जितने भी संभावित रास्ते हो सकते थे, हरेक से गुजरा वह लेकिन बात बनी नहीं. बराबर लगता रहा कि कुछ छूट रहा है, कुछ अधूरा सा है और ऐसा इसलिए है क्योंकि जीवन को उसके पूरे ताप में देख नहीं पा रही हैं आंखें, क्योंकि प्रेम तो किया नहीं. जो प्रेम नहीं करेगा, वह क्रांति क्या करेगा खाक. सो, प्रेम भी किया. कभी एकतरफा. कभी दोतरफा. कभी चौतरफा भी. लेकिन नतीजा सिफर रहा. कई बार पिटते- पिटते बचा. कई बार ऐसे मौके भी आये जब बचने को मुखालिफों और पेशेवर मजनुओं से माफी भी मांगनी पड़ी. ख़ैर. तिवारी जी की सोहबत और नकल और प्रेम दरिया में उतरने और भय बाधा पार करने के फन ने और कुछ सिखाया या नहीं, कलम पकड़ना और कलम के सृजनात्मक इस्तेमाल का ककहरा जरूर सिखा दिया इन वर्षों में. लिखना ही नहीं, भाषा के प्रति सचेत रहना भी.


मुझे याद आते हैं रामचंद्र शाही, वंशराज सिंह, केदार सिंह और रामशकल सिंह जैसे टीचर भी, जिन्होंने इंटरमीडिएट में मुझे पढ़ाया था. शाही जी प्रिंसिपल भी रहे कुछ दिनों तक. याद आते हैं विजयदेव नारायण साही, दूधनाथ सिंह, अमरकांत, मार्कंडेय और शैलेश मटियानी, जिन्होंने इलाहाबाद प्रवास के तीन बरसों में लिखने- पढ़ने और समझने की दुनिया में मुझे काफी हद तक मैच्योर किया. याद आते हैं कृष्णबिहारी श्रीवास्तव, हर्षवर्धन कुलश्रेष्ठ, ओंकार शरद जिनकी सोहबत में मैंने खबर बनाना सीखा और जब वह पहली अनूदित खबर छपी तो ऐसा लगा जैसे सिकंदर ने जग जीत लिया हो. लेकिन ठहरिये.

मुझे बालिग करने में एक और शख्स की बड़ी भूमिका रही है. वैसे वह है तो मेरा दोस्त लेकिन मुझे अखबारनवीस बनने की बुनियादी तालीम उसी ने दी. वह है सुभाष राय. जब कभी पत्रकार के रूप में मेरे दीक्षित होने का जिक्र होगा, मेरी आने वाली पीढ़ियो! उस सुभाष का जिक्र जरूर करना.


मुझे याद आते हैं राजेंद्र माथुर. याद आता है नवभारत टाइम्स का वह स्वर्ण युग. याद आता है पटना नभाटा के सहयोगियों के बारे में उनका वह कहना: वी आर द बेस्ट एवेलेबल टीम. माथुर साहब से मैंने सीखा निर्भीक होना और सत्य व वस्तुगत स्थितियों को ठीक ठीक पकड़ना, उनकी पूरी आंतरिकता के साथ पकड़ना. उनसे सीखा कि स्फटिक जैसी भाषा कहते किसे हैं. त्रिलोचन कहते थे- तुलसी बाबा, मैंने तुमसे भाषा सीखी. ठीक वैसे ही मैंने राजेंद्र माथुर से सीखी है भाषा और मुझे यह कबूल करने में रत्ती भर झिझक नहीं है. मौका मिला तो फिर कभी. कई और नाम छूट रहे हैं. मुमकिन है, यह पीस लंबा खिंचे. वादा नहीं करता. कोशिश करूंगा कि जिनके बीच रहना और सीखना हो पाया, उनमें से कोई जरूरी नाम न छूटे.

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(लेखक देश के शीर्षस्थ अखबारों के संपादक रहे हैं)

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