शिक्षा में भी अपनी अलग खास पहचान रखने वाली द्वाबा की धरती से लोप होती शैक्षणिक व्यवस्था पर गोन्हियाछपरा (बलिया) के युवा शैलेश सिंह के विचार
आजादी के बाद से शिक्षा में देश के शहरो में में व्यापक रूप से परिवर्तन हुआ. जबकि ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का मानक दिन पर दिन गिरता गया. आखिर जब भारत के प्रधानमंत्री लाल किले से ग्रामीण जनता की बात करते हैं, तो उनकी हमारी ग्रामीण परिवेश में शिक्षा के क्षेत्र में बिमारी क्यों नहीं दिखती? कभी मैंने अपने बड़े बुजुर्गों से सुना कि हमारे द्वाबा के प्रतिष्ठित स्कूलों जैसे सुदिष्ट बाबा इण्टरमिडिऐट कालेज, दुबेछपरा इण्टरमिडिऐट कालेज, बाबा लक्ष्मण दास इण्टरमिडिऐट कालेज में शिक्षा का मानक बहुत ही ऊँचा था. एक विषय के दो-दो, तीन-तीन अध्यापक थे, और आज भौतिक, रसायन, जीव विज्ञान, गणित,अंग्रेजी जैसे महत्वपूर्ण विषयों के विशेषज्ञ शिक्षक एकाध हैं, नहीँ है या जो हैं वो रिटायर के कगार पर हैं. यही यहां के वह विद्यालय हैं. जहां से पढ़ कर हजारों लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में शिक्षक, चिकित्सक, डाक्टर, इंजीनियर, सम्पादक व सरकारी बड़े अफसर पदों पर आसीन हो देश की सेवा किए और कर रहे हैं. लेकिन लगभग डेढ दशक से हालात दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हैं. शिक्षक नहीं, प्रयोगशालाएं झाड़ झंखाड से भरी हैं. शिक्षण संस्थानों विद्या का मन्दिर न रह कर नामांकन केन्द्र बन कर रह गए हैं.
मां सरस्वती की वन्दना से लेकर गुरूकुल में योग्य गुरूओं से मौखिक शिक्षा पाने के लिए इस देश में शिक्षा का कितना महत्व हैं. यह सर्वविदित है.
कभी नकल की बहार तो कभी नकल रोकने की चौकसी, बस इसी दायरे में रह गए हैं यहां के शिक्षण संस्थान. विद्यालयों में नाम लिखा जाता है. सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क से अधिक शुल्क लिया जाता है. सब कुछ तो होता है. लेकिन नहीं होता तो विद्यालयों में प्रार्थना, नहीं चलती तो कक्षाएँ. नहीं खुलते प्रयोगशालाओं के दरवाजे. नही होता तो वह है पाठ्य सहगामी क्रियाएं. शिक्षा के लिए घनघोर अंधेरे के दौर से गुजर रही है द्वाबा की माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था. इन सब के सुधार के लिए, इन सब के लिए लिए सड़क से सदन तक आवाज उठाने और सुविधाओं को यहां के धरातल पर उतारने के लिए हम जिन जनप्रतिनिधियों को चुनते हैं, जिम्मेदारी सौंपते हैं. वो भी इस पर नाम मात्र भी ध्यान नहीं देते. आत्म मुग्धता में उलझ जाते हैं, और दावा करते फिरते हैं कि यह कर दिया, वह कर दिया. माना अब स्व पंडित तारकेश्वर पाण्डेय, स्व ठाकुर मैनेजर सिंह जैसी सोच वाले जनप्रतिनिधि नहीं हैं. जिनके अंदर शिक्षा के प्रति वह तड़प थी कि आधी रोटी खा लो, उभड़ खाबड़ सड़क से भले चल लो. लेकिन शिक्षण संस्थान में वह व्यवस्था रहे कि पढ़ने आने वाले शिक्षित, संस्कारी व स्वावलम्बी बनें. खुद प्रगति करें और दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत व मार्गदर्शक बनें.
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गुरुकुल के पवित्र वातावरण में वैदिक शिक्षा प्राप्त करने का समय अब नहीं रहा. देश में अंग्रेजो के आगमन के बाद से ही उनकी पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव हमारी संस्कृति और शिक्षा पर पड़ा.
हालात देख कर ऐसा ही लगता है कि अगर समय रहते द्वाबा के युवा, अभिभावक व छात्र जागरूक होकर इस मुद्दे पर सामने आए. अपने माननीयो पर सुधार के लिए दबाव बनाएं, नहीं तो द्वाबा की मौजूदा शैक्षणिक प्रणाली सिर्फ एकलव्य ही बना पाएगी. भले जमीन पर ही बैठा कर पढाई हो लेकिन कक्षा 9 से 12वीं तक हर विषय के लिए विषय विशेषज्ञ शिक्षक रखे जायं और पढाई हो.