अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, भोगवादी प्रवृत्ति, विलासितापूर्ण जीवन तथा शोषणपरक नीति ने बढ़ाया है जल संकट- डा० गणेश

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22 मार्च को विश्व जल दिवस पर विशेष
बलिया। अमरनाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दुबेछपरा के भूगोल विभागाध्यक्ष एवं पर्यावरणविद् डा० गणेश कुमार पाठक ने कहा कि वर्तमान जल संकट मानव की भोगवादी प्रवृत्ति, विलासिता पूर्ण जीवन, अनियोजित तथा अनियंत्रित विकास एवं जल की शोषणपरक नीति की देन है. जलस्रोतों के अनियोजित एवं अनियंत्रित उपयोग के चलते एक तरफ जहाँ जल की बर्बादी से जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है, वहीं दूसरी तरफ जल प्रदूषण में भी तीव्रगति से वृद्धि होती जा रही है.
बताया कि जल सृष्टि का आदि तत्व है. जल न केवल जीवन को धारण करता है, बल्कि स्वयं जीवन है. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जल को देवता मानकर” वरूण देवो भव” कहा गया है और जल स्रोतों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतु पूजा का विधान बनाया गया है.
डा० पाठक ने बताया कि हमारी पृथ्वी पर जो जल विद्यमान है, उसमें से मात्र 0.8 प्रतिशत जल ही पीने योग्य है. शेष 97.4 प्रतिशत जल खारा जल के रूप में समुद्रों में एवं 1.8 प्रतिशत जल ध्रुवों पर बर्फ के रूप में विद्यमान है. प्रकृति में विद्यमान 1.5 बिलियन क्यूबिक किलोमीटर जल में से मात्र 12500 से 19000 बिलियन लीटर जल ही प्रतिवर्ष मानवीय उपयोग हेतु उपलब्ध है. इस तरह एक तिहाई जनसंख्या शुद्ध जल से बंचित है और 2025 तक कुल 48 देशों की 2.4 बिलियन जनसंख्या तथा 2050 तक 54 देशों की 4 बिलियन जनसंख्या को पेय जल संकट का सामना करना पड़ेगा. जो कुल जनसंख्या का 40 प्रतिशत होगा. यदि वर्तमान जल संकट को देखा जाय तो विश्व की 1.1 बिलियन जनसंख्या को पर्याप्त जल आपूर्ति नहीं हो पा रही है. इस तरह विश्व के प्रत्येक 6 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति जल संकट से जूझ रहा है.
डा० पाठक के अनुसार यदि भारत के संदर्भ में जल उपलब्धता को देखा जाय तो सन् 1947 में 40 करोड़ जनसंख्या के लिए 5000 घनमीटर जल प्रति व्यक्ति उपलब्ध था. जबकि सन् 2000 में 100 करोड़ जनसंख्या के लिए जल उपलब्धता घटकर 2000 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष हो गयी. एक अनुमान के अनुसार 2025 में 139 करोड़ जनसंख्या के लिए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष मात्र 1500 घनमीटर जल उपलब्ध होगा, जबकि 2050 में 160 करोड़ जनसंख्या के लिए मात्र 1000 घनमीटर जल प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष उपलब्ध होगा, जो घोर जल संकट की तरफ इंगित करता है.
डा० पाठक ने क्षेत्रीय स्तर पर खासतौर से पूर्वांचल के जनपदों में उत्पन्न हो रहे जल संकट पर भी प्रकाश डालते हुए बताया कि बलिया सहित पूर्वांचल के सभी जनपदों में धरातलीय जल स्रोत सूखते जा रहे हैं एवं भूमिगत जल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है, जो भविष्य के लिए खतरे की घंटी है.

डा० पाठक ने बताया कि बलिया जनपद में वर्षा पूर्व का जल स्तर औसतन 7 मीटर है, जबकि वर्षा पश्चात जल स्तर 4.5 मीटर प्राप्त होता है. चंदौली जिला के मैदानी क्षेत्रों में 10 से 15 फीट एवं पहाड़ी क्षेत्रों में 18- 20 फीट जल स्तर रहा है. गाजीपुर में प्रतिवर्ष 20 सेण्टीमीटर जल स्तर खिसक रहा है. जौनपर के 11 विकासखण्ड डार्क जोन में हैं. मिर्जापुर के पठारी क्षेत्रों में 90 सेण्टीमीटर तक जल स्तर खिसक गया है. सोनभद्र में प्रतिवर्ष 2 से 4 फीट तक जल स्तर खिसक रहा है, जबकि आजमगढ़ में प्रति वर्ष 20 सेण्टीमीटर जल स्तर खिसक रहा है. भदोही में गर्मी के दिनों में 3 मीटर जल स्तर नीचे चला जाता है
डा० पाठक ने चेतावनी देते हुए कहा कि जल संकट हमारे लिए गंभीर चुनौती है और आगे आने वाले वर्षों में यह चुनौती और गंभीर रूप धारण कर लेगी तथा स्थानीय, क्षेत्रीय, राज्य, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जल विवाद उत्पन्न होंगे. जिसकी शुरूआत हो भी चुकी है हमारी समाजिक सोच एवं कार्य व्यवहार भी जल संकट के लिए जिम्मेदार है. जल स्रोतों विशेष सामरिक महत्व भी हे और भविष्य में जल के लिए भी युद्ध होंगे. यही नहीं जल संकट के वैश्विक स्तर राजनैतिक दाँव- पेच, कानून एवं समझौते भी जिम्मेदार है. अतः वैश्विक, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर आपसी मतभेदों को भुलाकर सार्थक पहल करनी चाहिए.
इस प्रकार जल संकट की विकरालता पर चिन्ता व्यक्त करते हुए डा० पाठक ने बताया कि यदि जीवनदायिनी जल को नहीं बचाया गया तो न केवल मानव जगत, बल्कि जीव- जंतु जगत एवं पादप जगत का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा, बल्कि पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगेगा, क्योंकि जल पुरूष राजेंन्द्र सिंह के शब्दों में ” जल ही पर्यावरण है और पर्यावरण ही जल है. जब जल स्वस्थ रहता है तो पृथ्वी स्वस्थ रहती है.”
इस प्रकार डा० पाठक ने कहाकि यदि हमें पृथ्वी को बचाना है और सभी जीवधारियों तथा वनस्पतियों के अस्तित्व को बचाना ही लक्ष्य है. तो हम जहाँ हैं, वहीं से जल को बचाना होगा एवं जल संरक्षण की बात सोचनी होगी. हमें भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को पुनर्जीवित कर उसके माध्यम से जल को सुरक्षित, संरक्षित, चीरकाल तक उपयोगी एवं प्रदूषण मुक्त करना होगा. अतः हमें जल की बचत प्रक्रिया, बर्बादी को रोकना , विकल्प की खोज , संचयन, सुरक्षित उपयोग, गुणवत्ता में वृद्धि, प्रदूषण से बचाव, वर्षा जल संचयन तथा जलापूर्ति की संचयित एवं सुरक्षित प्रक्रिया को अपनाना होगा और इसके लिए जनजागरूकता एवं जनसहभागिता अति आवश्यक है.