10 जून, विश्व भू-गर्भ जल दिवस पर विशेष- भविष्य में आने वाला है घोर जल संकट,करने होंगें संरक्षण के उपाय

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10 जून, विश्व भू-गर्भ जल दिवस पर विशेष- भविष्य में आने वाला है घोर जल संकट,करने होंगें संरक्षण के उपाय

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डॉ. गणेश पाठक, पर्यावरणविद्

बलिया. पृथ्वी तल के नीचे स्थित किसी भू- गर्भिक स्तर की सभी रिक्तियों में विद्यमान जल को भू-गर्भ जल कहा जाता है। अपने देश में लगभग 300 लाख हेक्टोमीटर भू-गर्भ जल उपलब्ध है। इसका 80 प्रतिशत तक हम उपयोग कर चुके हैं। यदि भू-जल विकास स्तर की दृष्टि से देखा जाय तो अपना देश धूमिल संभावना क्षेत्र से गुजर रहा है,जो जल्दी ही संभावना विहिन क्षेत्र के अन्तर्गत आ जायेगा। इसको देखते हुए कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में अपने देश में घोर जल संकट उत्पन्न हो सकता है। हाल ही में बंगलौर जिस जल संकट से गुजर रहा है, यह एक चेतावनी मात्र है। देश के अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे जल संकट के आसार परिलक्षित हो रहे हैं।

यदि उत्तर- प्रदेश में भू-गर्भ जल की स्थिति को देखें तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जायेगी,कारण कि एक अध्ययन के अनुसार विगत वर्षों में उत्तर- प्रदेश में भू-जल का वार्षिक पुनर्भरण 68,757 मिलियन घन मीटर, शुद्ध दोहन 49483 मिलियन घन मीटर एवं भू-जल विकास 72.17 प्रतिशत रहा है,जबकि सुरक्षित सीमा 70 प्रतिशत है। वर्तमान समय में यह स्थिति और खराब हो गयी है।

वाटर एंड इण्डिया एवं अन्य स्रोतों के अनुसार 2000 से 2010 के मध्य भारत में भू-जल दोहन 23 प्रतिशत बढ़ा है। विश्व में प्राप्त कुल भू-जल का 24 प्रतिशत अकेले भारत उपयोग करता है। इस तरह भू-जल उपयोग में भारत का विश्व में प्रथम स्थान है। फिर भी अपने देश में एक अरब से अधिक लोग पानी की कमी वाले क्षेत्रों में रहते हैं। वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भविष्य में न केवल भारत में बल्कि विश्व में घोर जल संकट की स्थिति आने वाली है।

बलिया सहित पूर्वांचल में जल की स्थिति-

यद्यपि कि बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में भू-जल की स्थिति बहुत खराब नहीं कही जा सकती,किंतु उपभोग की स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बलिया सहित पूर्वांचल के जिलों में भी भविष्य में जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। आजमगढ़, बलिया एवं गाजीपुर जिले धूमिल सम्भावना क्षेत्र के अन्तर्गत आ गए हैं, जबकि जौनपुर, वाराणसी एवं संत रविदास नगर जिले संभावना विहिन क्षेत्र के अन्तर्गत आ गए हैं। यानि कि इन तीनों जिलों  में भू-जल दोहन को पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। धूमिल संभावना क्षेत्र वाले जिलों में भी जल उपयोग को संतुलित किया जाना चाहिए।इन सभी जिलों में जल विदोहन करना प्रकृति के साथ खिलवाड़ है।

भू-जल में गिरावट के प्रमुख कारण –

*वर्षा वितरण में असमानता एवं वर्षा में कमी का होना,अधिकांश

*क्षेत्रों में सतही जल का आभाव,पेयजल आपूर्ति हेतु भू-जल का अधिक दोहन, सिंचाई हेतु भू-जल का अत्यधिक दोहन एवं उद्योगों में भू-जल का अत्यधिक उपभोग आदि भू-जल में गिरावट के प्रमुख कारण हैं।

*भू-जल की कमी से उत्पन्न समस्याएं –

*भू – जल स्तर का निरन्तर नीचे की तरफ खिसकना, भू-जल में प्रदूषण की वृद्धि,पेय आपूर्ति की समस्या में वृद्धि, सिंचाई जल की कमी से कृषि पर प्रभाव, भू-जल का अत्यधिक लवणतायुक्त होना,पेय जल आपूर्ति का घोर संकट उत्पन्न होना,

*भू-जल की कमी एवं जल का प्रदूषित होना तथा आबादी वाले क्षेत्रों में जल आपूर्ति की कमी होना आदि भू-जल की कमी से उत्पन्न प्रमुख समस्याएं हैं।

भू-जल दोहन रोकने के उपाय-

भू-जल समस्या का एकमात्र उपाय भू-जल में हो रही कमी को रोकना है। प्रत्येक स्तर पर भू-जल के अनियंत्रित एवं अतिशय दोहन तथा शोषण एवं उपभोग पर रोक लगाना  आवश्यक है। पुराने जल स्लैम को पुनर्जीवित करना होगा। जल ग्रहण क्षेत्रों में अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना होगा,ताकि प्राकृतिक रूप से जल का पुनर्भरण होता रहे। जल बचत प्रक्रिया को अपनाना होगा। येन – केन प्रकारेण जल की बर्बादी को रोकना होगा। विकल्प की खोज करनी होगी। सुरक्षित एवं संरक्षित उपयोग करना होगा। जल को प्रदूषण से बचाना होगा। वर्षा जल का अधिक से अधिक संचयन करना होगा। जल आपूर्ति की सुरक्षित एवं संचयित प्रक्रिया अपनानी होगी। भूमिगत जल को चिरकाल तक स्थाई रखना होगा। कुल वर्षीय जल का कम से कम 31 प्रतिशत जल को धरती के अंदर प्रवेश कराने की व्यवस्था करनी होगी,इसके लिए वर्षा जल संचयन(रेन वाटर हार्वेस्टिंग) को बढ़ावा देना होगा।

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