बांग्ला में एक कहावत है – चोरेर गलाय जोर बेशी (अर्थात चोर की आवाज तेज होती है). मान लिया चोटीकटवा एक अफवाह या भ्रम मात्र है, मगर क्या यह सच नहीं है कि रोज हो रही नई घटनाएं उसे पीड़ितों की नजर में सच साबित करने पर तूली हैं. जबकि उसे अफवाह साबित करने के मामले में हम जबानी जमा खर्च के सिवाय कुछ नहीं कर रहे हैं. महिलाओं में यदि असुरक्षा बोध बढ़ रहा है तो क्या देश, राज्य, शासन व प्रशासन और समाज की जिम्मेदारी यह नहीं है वह उन्हें सुरक्षा प्रदान करे. विशेष तौर पर भावनात्मक. उन्हें साइंटीफिक ढंग से विश्वास दिलाए कि वाकई यह अफवाह मात्र है. प्रस्तुत है सिकंदरपुर (बलिया) में कई साल से जमीनी पत्रकारिता कर रहे संतोष शर्मा का नजरिया
मुंहनोचवा की कहानी लोगों के जेहन से अभी पूर्णतः उतरी भी नहीं थी कि चोटीकटवा का आतंक अन्य जिलों से होते हुए सिकंदरपुर तक पहुंच गया है. पुलिस प्रशासन के लोग इसे मात्र अफवाह बता लोगों से निर्भिक व निश्चित रहने की अपील कर रहे हैं. मीडिया भी इसे अफवाह की श्रेणी में ही रख रही है, जबकि महिलाओं की चोटी कटने की घटनाएं तो हो ही रही हैं.
चोटी कैसे कट रही है? इसकी जांच में निष्कर्ष निकालना तो पुलिस की जिम्मेदारी बनती है. तथ्य यह है कि अफ़वाह का सर व पैर नहीं होता और तेजी से प्रचारित तो होता है, किंतु प्रमाणित नहीं हो पाता. कारण कि उसका न तो कोई प्रत्यक्ष चश्मदीद होता है, न हीं गवाह होता है. इस आधार पर चोटी कटने की घटना को मात्र अफवाह नहीं कहा जा सकता. पीड़ित महिलाएं अपने कटे हुए केश लेकर स्वयं दिखाती हैं. लोग उनके कटे बाल को देखते हैं, किंतु ये चोटियां कैसे कट रही हैं, कौन काट रहा है, सब कुछ रहस्य बना हुआ है.
इस रहस्य को अफवाह बताना पीड़ित महिलाओं के प्रति संवेदनहीनता नहीं तो और क्या है, जबकि पुलिस प्रशासन को विस्तारपूर्वक लोगों को यह आश्वासन देना चाहिए कि वे इस रहस्य का पर्दाफाश करके ही रहेंगे. महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित कौन करेगा? क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि परिवार के लोगों के साथ कमरे में सोई, बैठी या खाना पका रही किसी की चोटी कट जाए. यह तो एक नए किस्म का आतंक है. ऐसी हालत में किसी भी महिला में सुरक्षा बोध कैसे पैदा हो सकता है? अफवाह बता कर उससे पिछा छुड़ाने से काम नहीं चलेगा. यदि उसे नष्ट नहीं किया गया तो भविष्य में शासन और प्रशासन को व्याप्त जन असंतोष का सामना करना पड़ सकता है.