केदारजी ने मेरे पिताजी की डायरी ‘जग दर्शन का मेला’ की भूमिका लिखी थी. किताब विश्व पुस्तक मेले में जारी हुई. तब केदारजी कोलकाता में अस्पताल में थे. दिल्ली आकर फिर एम्स. घर. फिर फ़ोर्टिस. मूलचंद अस्पताल. फिर एम्स. और वहाँ से आगे चले गए. उस घर को, जो अस्पतालों के चक्करों से बरी है.
मूलचंद गया तो एक ही इच्छा बार-बार व्यक्त करते थे – मुझे घर जाना है. उनका बेटा, बेटियाँ और बहन, जो हर घड़ी उनके पास मौजूद थे, झूठी दिलासा देते कि कल छुट्टी मिल जाएगी. यह निरापद झूठ मैं भी बोलकर आया.
अस्पताल में बोले, पिताजी कैसे हैं? मैंने बताया बहुत ठीक. उनकी किताब कहाँ है? मैंने कहा, अस्पताल में क्या लाता. बोले, क्यों नहीं? कल लाओ.
अगले रोज़ हम दोनों गए. किताब के साथ. कहा – मुझे बिस्तर से नीचे कुर्सी पर उतारो. कुर्सी पर बिठाया. और तन्मय हो वे मित्र की किताब में खो गए. अपनी भूमिका पढ़ी. दो संशोधन उन्होंने बाद में सुझाए थे. उन्हें देखा. फिर मेरी ओर ऊपर देखकर कहा, यह बड़ी किताब है. फिर पिताजी के साथ क़स्बे में बिताए क्षण याद करने लगे. मैंने तुरंत मोबाइल में संजोय पिताजी और उनका चित्र सबको दिखाया.
और अगले हफ़्ते यह हाल है कि वह शाम दास्तान बन चुकी है. बार-बार आँखों के सामने घूमती उनकी कमज़ोर पड़ी काया है. अस्पताल की उदास खिड़की. और उसके पार का नीम का पेड़, जिसे वे अनवरत निहारते रहते थे.
और उनकी कराह – मुझे घर जाना है.
वह घर आपको मुबारक, केदारजी! हमारे लिए तो वह एक बुरी ख़बर साबित हुआ है. –ओम थानवी, सलाहकार संपादक, राजस्थान पत्रिका
केदार जी की पार्थिव देह गई. वे स्मृतियों में गूंजते रहेंगे – अपनी कविताओं की तरह. कोलकाता से बनारस तक कितना ही संग-साथ रहा. वे जगहों से लोगों को और लोगों से जगहों को याद करते थे. दो बार लखनऊ में भी मिले. उनकी यादें पिघलाती रहेंगी. उनके स्नेह ने बहुत भिगोया है. जाइए केदार जी, सच – जाना हिंदी की बहुत खौफनाक क्रिया है…. अरविंद चतुर्वेद (स्थानीय संपादक – डीएनए, लखनऊ)
चार साल पहले मैं अतुल और शैलेन्द्र के साथ अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय वर्धा , महाराष्ट्र गया था. हिन्दी जगत के सुप्रसिद्ध रचनाकार अपने प्रिय कवि केदार नाथ सिंह की अध्यक्षता मे हमने अदम गोंडवी की नज़्म चमारों की गली की प्रस्तुति की. प्रस्तुति के बाद जब मंच पर केदार जी आये तो उनके मुंह से सबसे पहला वाक्य निकला कि ‘मंच से बलिया बोल रहा था ‘हमारी आंखें छलक पड़ी थी. आपके साथ बिताये गये न जाने कितने पल आज उमड़ घुमड़ रहे हैं. आपने तो हमारी बिदेसिया की प्रस्तुति भी देखने को कहा था. मन बहुत दुखी है. आपको अंतिम प्रणाम हमारे प्रिय कवि. – आशीष त्रिवेदी (ख्यातिलब्ध रंगकर्मी)
वे जब चकिया आये हमने हर बार मिलने की कोशिश की… वे बड़ी सरलता और सुगमता से मिले. जैसे कभी नहीं लगा कि हम हिंदी के सिरमौर से मिल रहे हों. अभी पिछले दिसंबर में गाँव आये थे… रामजी भाई, अजय भाई और मैं उनसे मिले थे. रामजी भाई को पुस्तक पर चर्चा के लिए कलकत्ता आने के लिए कहे. हम खुद उनके आने का इस बार बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. उनके स्वास्थ्य से हमें आभास नही हुआ कि वे अंतिम बार चकिया आए हैं. किसी के जाने से हृदय कैसे खाली सा हो जाता है आज एकदम से महसूस हो रहा है… समीर कुमार पांडेय (अध्यापक)
(फेसबुक के कोठार से साभार)