विश्वकर्मा पूजा पर विशेष- (17 सितम्बर)
शिल्पकारों के आराध्य भगवान विश्वकर्मा का बलिया से गहरा नाता, बचपन के कुछ वर्ष बिताए थे भृगुनगरी में
बलिया. आद्य इंजीनियर त्वष्टा- मय- विश्वकर्मा नामों से पूजे जाने वाले देव शिल्पी के बारे में इतिहासकार डाॅ.शिवकुमार सिंह कौशिकेय बताते हैं कि मत्स्यमहापुराण , पद्मपुराण और हिंदी, तमिल के ऐतिहासिक उपन्यासकार रागेंय राघव की पुस्तक ” महागाथा ” के अनुसार महर्षि भृगु और असुरेन्द्र हिरण्यकश्यप की पुत्री, संजीवनी चिकित्सक दिव्या देवी के छोटे पुत्र त्वष्टा – विश्वकर्मा जी देवासुर संग्राम में अपनी माता की हत्या के बाद अपने पिता महर्षि भृगु के साथ ब्रह्मलोक ( सुषानगर) छोड़कर विमुक्त तीर्थ बलिया आ गए थे.
बड़े भाई काव्य- शुक्राचार्य की रुचि यज्ञ, कर्मकांड के पुरोहिताई में थी . वे पिता भृगु के आश्रम के गुरुकुल में इसकी शिक्षा ग्रहण करने लगे लेकिन विश्वकर्मा की रुचि शिल्प कला के अनुसंधान में थी. वे कुछ वर्ष तक आश्रम में रहकर गुरुकुल के निर्माण में हाथ बंटाने के बाद अपने ननिहाल दक्षिण भारत चले गए, ननिहाल के स्वच्छन्द समृद्ध जीवन ने विश्वकर्मा को विश्वप्रसिद्ध शिल्पकार बना दिया और वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे.
डाॅ.कौशिकेय ने बताया कि मातृकुल में इस महान शिल्पी को ‘ मय ‘ के लाडले नाम से बुलाया जाता था . पितृकुल में इन्हें ‘ त्वष्टा ‘ कहा जाता था लेकिन सम्पूर्ण के लिये ये अद्वितीय शिल्पकार विश्वकर्मा हुए. अमेरिका के मैक्सिको में पुरातत्ववेत्ताओं को मिले ‘मय सभ्यता’ के मंदिर कोपेन की दीवारों पर हाथी, महावत के भित्तिचित्र, निकल में मिले मुण्डधारी शिव, अनन्त, वासुकी तक्षक और सर्प प्रतिमाएं इन्हीं मय – विश्वकर्मा की देन हैं . भारतीय पुरातत्ववेत्ता डाॅ. छाबड़ा ने चालीस ऐसे पुरातात्विक साक्ष्यों का संग्रह किए थे जो विश्वकर्मा जी को विश्व के महानतम शिल्पकार के रुप में प्रतिष्ठित करते हैं.
डाॅ.कौशिकेय कहते हैं कि इस महान शिल्पकार की भृगुक्षेत्र के वर्तमान बलिया नगर के भृगु मंदिर में अपने पिता महर्षि भृगु की समाधि के दक्षिण पार्श्व में पालथी मारकर विश्वकर्मा जी विराजमान हैं. इसी प्रकार दूसरे बलिया नगर के अस्थाई महर्षि भृगु समाधि स्थल बालेश्वरघाट पर एक विश्वकर्मा मंदिर है.