‘मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोले, मधुर पवन अलसावे हो रामा…’

सिकंदरपुर (बलिया) से संतोष शर्मा

बसंत पंचमी बीत गई फागुन चल रहा है, अब चौपाल से उठते चौताल और फाग के बीच ढोलक के सुर नहीं सुनाई देते हैं. अब तो लोग कैलेंडरों पर ही तारीख और दिन देख-देखकर निर्भर रहते हैं. गांव हो या नगर बस यही लगता है कि बिसर गईल फाग भूल गई चाईता. बसंत पंचमी के दिन होलिका स्थापना की परंपरा के साथ ही फाग या फगुआ का शुभारंभ हो जाता है. पिछले कुछ वर्षों से फाग गाए जाने को कौन कहें होली का स्थापना की परंपरा ही कम होती जा रही है, क्योंकि इस वासंतिक परिवेश में मौसम ही नहीं, मनुष्य का मन भी बदल गया है.

मन का यह बदलाव ऐसा नहीं है जिसमें सहयोग, सामंजस्य, सहिष्णुता और समरसता का संदेश सवर विद्यमान हो. यह मानसिक बदलाव ऐसा है, जिसमें अलगाव एवं दूरियों का स्वर ज्यादे हैं. कस्बे के बुजुर्ग लोगों का कहना है कि कभी यह परंपरा रही है कि पूरे फागुन माह में प्रतिदिन या हफ्ते में एक दिन लोग एकत्र होकर ताल निबंध शास्त्रीय गीत चौताल गाते थे. द्विगुण और चौगुण में चैता लगाने की परंपरा अब चंद स्थानों तक सिमट कर रह गई है. चौताल में भाव प्रधान और कुप्रथा पर प्रहार करने वाले गीत अब भूली बिसरी बातें बनकर सिमटते जा रहे हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इन गीतों की परंपरा को कायम रखने वाले ग्रामीण प्रशिक्षण नहीं लेते थे. युवा अवस्था में बुजुर्गों संग संगत कर पारंगत होते थे. अब युवा विमुख हुए तो परंपरा विलुप्त हो रही है.

युवा इन पारंपरिक गीतों को सीखने और बुजुर्ग सिखाने को आगे आए. आज होली गीतों के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है. लोक परंपरा व इससे जुड़े विभिन्न भाव आधारित गीतों को कायम रखने की पहल लोग नहीं कर पा रहे हैं – परमात्मा विश्वकर्मा (भोजपुरी के जानेमाने गायक)

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