किसका बढ़ेगा कद और किसकी होगी फजीहत

लवकुश सिंह
यूपी विधानसभा चुनाव 2017 के लिए अब सातवें चरण चरण का मतदान होना बाकी है. सभी पार्टियां इसके लिए अपनी ताकत झोंक चुकी हैं. कद्दावर नेताओं से लेकर फिल्‍मी हस्तियों तक को मैदान संभालने के लिए लगाया गया है, किंतु अब जो कुछ भी होना है, हो चुका है. माउथ मीडिया से लेकर तमाम चैनलों और प्रिंट मीडिया में अब इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि यूपी में सरकार किसकी बनेगी ? अटकलें अंदाजे जरूर लग रहे हैं, किंतु अभी 10 मार्च तक इससे बचना ही आचार संहिता के हिसाब से जायज है. विधानसभा चुनाव के आखरी दौर में हम चर्चा इस बात पर करना चाहते हैं कि इस वर्ष के चुनाव में भाजपा, सपा, बसपा आदि प्रमुख दलों में किसका क्या लग गया है दाव पर ?

समाजवादी पार्टी
मुलायम की समाजवादी पार्टी पांच साल से सत्तासीन है. उसका बहुत कुछ दांव पर होना लाजमी है. इसका एक कारण यह है कि उसके युवा मुखिया ने पार्टी की पूरी कमान अपने हाथ में लेने के लिए आखिरी दम तक बड़ी जद्दोजहद की. बड़े-बड़े नेताओं की नाराज़गी मोल लेकर अखिलेश यादव अकेले दम मैदान में उतरे हैं. कांग्रेस से गठबंधन का बड़ा फैसला भी उन्हीं का है. यह उनका दाव उन्‍होंने अकेले ही खेला, इसलिए यदि वह जीते और उनकी पुन: सरकार बन गई तो देश के सबसे बड़े राज्य यूपी के वह एक छत्र नेता ही नहीं साबित होंगे, बल्कि देश की राजनीति को भी छूने लगेंगे. यदि उन्‍हें सफलता नहीं मिली तो यह माना जाएगा कि सत्ता के प्रति होने वाले स्वाभाविक विरोध का प्रबंधन वह नहीं कर सकेय सर्वत्र यही माना जाएगा कि परिवारिक कलह ही सपा की नैया डूबों दी.

मायावती की बसपा
पिछले चुनाव में बहुजन समाज पार्टी, यानी बीएसपी को हराकर ही समाजवादी पार्टी सत्ता में आई थी. पांच साल पहले बीएसपी की सरकार भी भरे पूरे बहुमत की सरकार थी. उसके पहले भी कई बार वह यूपी में शासन कर चुकी है. अपने एक निश्चित और ठोस जनाधार के कारण वह इस बार अपनी हैसियत से भी ज्यादा दांव लगाने से आखिर क्यों चूकती. इस चुनाव में मायावती की रैलियों में वैसी ही टूट पड़ती भीड़ फिर दिखी है. अब यह अलग बात है कि मीडिया प्रबंधन में वह कुछ कमज़ोर दिखाई दीं. हालांकि अभी यह कह पाना मुश्किल है कि इस मामले में उनकी तरफ से दांव पर कम लगा है, क्योंकि बाद में हो सकता है कि यह विश्लेषण हो कि उनके मामले में मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता ज्यादा दांव पर लगा दी.

मोदी की भाजपा
पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, यानी बीजेपी की हालत कुछ ज्यादा ही बुरी थी. उसके पास खुद को दिलासा देने की यही बात बची थी कि उसकी हालत कांग्रेस से कम बुरी रही, किंतु इस बार के चुनाव में प्रदेश बीजेपी से ज्यादा राष्ट्रीय बीजेपी, बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने खुद को दांव पर लगा दिया है. दांव का भारी भरकम देखें तो कोई भी कह सकता है यूपी के चुनाव में बीजेपी की प्रतिष्‍ठा ज़रूरत से ज्यादा दांव पर लगी है. इसका तर्क ढ़ूढें तो वह यही बनेगा कि उसके लिए यह चुनाव यूपी की बजाय 2019 के लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से ज्यादा मायने रखता है.

राहुल की कांग्रेस
दांव के मामले में कांग्रेस ने तो राजनीति की हद ही कर दी है. 27 साल से यूपी की सत्ता से बेदखल कांग्रेस के पास इस बार एक मौका है. यूपी के चुनाव की तैयारियों की शुरुआत भी उसने सबसे पहले कर दी थी. इस बार उसे प्रशांत किशोर जैसे चुनाव प्रबंधक की सेवाएं भी हासिल हो गई थीं. राहुल गांधी ने एक महीने की किसान यात्रा ने कुछ-कुछ माहौल भी तैयार कर लिया था, किंतु उसके चुनाव प्रबंधक ने शुरू से ही सिर्फ 100 सीटों पर सीमित दांव लगाने की सिफारिश की थी. आखिर प्रशांत किशोर के प्रयासों से ही 100 सीटों की कीमत पर समाजवादी पार्टी से गठबंधन का दाव चला गया. आज से नौ महीने पहले प्रशांत किशोर ने तीन ‘पी’ यानी प्रशांत, प्लानिंग और प्रियंका नाम से चुनावी डिज़ाइन बनाया था. उस लिहाज़ से देखें तो कार्ड के रूप में प्रियंका गांधी को आगे के लिए बचाकर भी रख लिया गया और 100 सीटों पर पहले से ज्यादा फोकस भी हो गया. यूपी जैसे विशाल प्रदेश में सभी 403 सीटों पर नहीं लड़ने से पार्टी और उसने अपने स्थानीय नेताओं का खर्चा बचा लिया, सो अलग. यानी इस चुनाव में अगर किसी का सबसे कम दांव पर लगा है तो वह कांग्रेस ही दिखती है. वहीं कांगेस को पाने के लिए उसके पास बिहार की तरह सारी संभावनाएं मौजूद हैं.

बनारस शहर उत्तरी में रालोद प्रत्याशी दिव्य कुमार गुप्ता के साथ जयंत चौधरी

अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोकदल
राष्ट्रीय लोकदल, यानी आरएलडी सिर्फ पश्चिमी यूपी तक सीमित मानी जाती हो, किंतु गठबंधन की राजनीति में उसकी हैसियत खासी रही है. पहले बात हो रही थी कि कांग्रेस-एसपी गठबंधन के बाद कांग्रेस अपनी हिकमत लगाकर आरएलडी को भी गठबंधन में ले आएगी. किंतु कांग्रेस-एसपी गठबंधन मुकम्मल होने में इतना वक्त लग गया कि आरएलडी का धैर्य खत्‍म हो गया होगा. कांग्रेस-एसपी गठबंधन के ऐलान से पहले ही आरएलडी ने अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया था. इसलिए अब गठबंधन की गुंजाइश ही नहीं बची थी. अब रही बात कि आरएलडी की प्रतिष्‍ठा का कितना दांव पर लगा है, तो इसका आकलन जरा मुश्किल है, क्योंकि बिना गाजे-बाजे वाले इस चुनाव में आरएलडी का प्रचार ज्यादा दर्ज नहीं हो पाया. मीडिया की उपेक्षा के शिकारों में उसका नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है. यानी उसकी साख, संसाधन या भविष्य ज्यादा दांव पर लगा नहीं दिखता, किंतु खुदा न खास्ता, किन्हीं दो बड़े दलों में कांटे की टक्कर हो गई और किसी को बहुमत के लिए पांच-दस सीटों की कमी पड़ गई, तो अजित सिंह और जयंत के घरों के बाहर मेला भी लग सकता है. भले ही यह बहुत दूर की बात हो, किंतु जब सारे विकल्पों को देख रहे हैं, तो नगण्य संख्या वाली संभावनाओं की गणना फिलहाल जरूरी है.

पार्टी ही नहीं, मीडिया की प्रतिष्‍ठा भी दाव पर
यूपी के विधान सभा चुनाव में केवल राजनीतिक दलों की प्रतिष्‍ठा ही दाव पर नहीं है. मीडिया की प्रतिष्‍ठा भी दाव पर है. अपनी साख को लेकर कुछ साल से गर्दिश में चल रहे मीडिया के पास यह मौका था कि अपनी साख की बहाली की कोशिश कर लेती, किंतु जब चुनाव पांच राज्यों में हों और जिनमें यूपी जैसा राज्य भी शामिल हो, तो साख की बहाली का काम आगे बढ़ा दिया गया लगता है. अपनी-अपनी पसंद के दलों के पक्ष में और उसके विरोधी दल की छवि को मटियामेट करने की कवायद में टीवी और अखबारों ने निसंकोच और ठोककर काम किया है । अपनी अपनी चुनाव सर्वेक्षण एजेंसियों के अनुमानों को प्रचारित करके अपने-अपने दलों की हवा बनाने का काम सीना ठोककर हुआ है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि इन चुनावों में सबसे ज्यादा मीडिया की प्रतिष्‍ठा दाव पर लगी है. हालांकि चुनाव आयोग की सख्‍ती से इस बार ज्यादातर मीडिया किसी के पक्ष में लहर या आंधी चलवाने में पूरी तौर पर कामयाब होते नहीं दिखी, किंतु उसे चुनाव नतीजे आने के पहले ही अपनी साख बचाने का प्रबंध कर लेने की ज़रूरत पड़ेगी. यह मौका उसे मतदान का समय खत्म होने के बाद जारी किए जाने वाले एग्ज़िट पोल से मिलेगा. अब तक तो इन ओपिनियन पोलों की पोल वोटों की गिनती के दिन खुलती थी, किंतु यह ऐसा अनोखा चुनाव साबित होने जा रहा है, जब सर्वे कंपनियां अपने ही ओपिनियन पोल पर लीपापोती करती मिलेंगी.

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