बसुधा पांडेय के नाम पर पड़ा था बलिया जिले के बसुधरपार गांव का नाम, जिसे बसुधरपाह के नाम से भी जाना जाता है. पूरे गांव के पांडेय लोग बसुधा पांडेय के वंशज हैं. वैसे इस गांव के पांडेय हरसु ब्रह्म के वंशज माने जाते है. ‘अपनी खबर’ नामक अपनी पुस्तक में मशहूर लेखक और पत्रकार पांडेय बेचन शर्मा उग्र लिखते हैं कि मेरे खानदान के लोग हरसू (पांडेय) ब्रह्म के वंशज है, जिनका परम प्रसिद्ध मंदिर यूपी-बिहार की सीमा पर चैनपुर (भभुआ/कैमूर) में स्थित है. इसी गांव के रहने वाले विक्रमादित्य पांडेय किसी दौर में यूपी के नगर विकास मंत्री हुआ करते थे. गांव में व्यास बाबा के नाम से मशहूर राम व्यास पांडेय भी इसी गांव के रहने वाले थे. किसी दौर में वे कलकत्ता से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका मणिमय का संपादन और प्रकाशन किया करते थे. 30 सितंबर 2019 को उनकी चौथी पुण्यतिथि थी.
उनकी हरकत प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ की याद दिला रही थी
साल 1992, संभवतः मई-जून का ही महीना था. मेरे बाबा (स्व. राम प्रवेश पांडेय) के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी. बसुधरपाह (बलिया) स्थित मेरे घर से दाह संस्कार के लिए गंगा तीर पर जाना था. विकल्प दो ही था या तो ट्रैक्टर से जाया जाए या फिर ट्रक से, कारण यही घर में सजह सुलभ था. अन्य शव यात्रियों संग जब हम बाबा को लेकर ट्रक के करीब पहुंचे तो उसके हूड (ट्रक ड्राइवर के केबिन के छज्जे पर) पर नजर पड़ी, किशोर वय लड़कों के बीच आगे पलथी जमाए बाबा रामव्यास पांडेय विराजमान थे. वे मेरे स्वर्गवासी बाबा से बस कुछ ही साल छोटे रहे होंगे, फिर भी अनुमान है कि तब वे 65 तो पार कर ही चुके होंगे. कद काठी से हल्के फुल्के थे ही, मगर उनकी यह हरकत प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ की याद दिला रही थी कि ‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरामन होता है.’ तब तक मेरे पीछे खड़े एक सज्जन ने कहा – ‘तिकवत का बाड़…… आगे बढ़ मरदे….. बाबा एगो हइए हवन.’
गांधी स्टाइल में घुटने तक धोती और अमूमन सलमान स्टाइल बिना कुर्ता के
रामव्यास बाबा मेरे गोतिया थे, पट्टीदार कह लीजिए. रिश्ता मेरा उनका बाबा-पोते का था. किसी दौर में वे कोलकाता (तब कलकत्ता) से मणिमय नामक साहित्यिक पत्रिका निकाला करते थे. वे कोलकाता में ही साहित्यकारों-पत्रकारों के बीच विचरते रहते थे. उन दिनों हुगली (गंगा) नदी के उस पार हावड़ा में रहने के बावजूद मेरा उनका कोई खास सपर्क नहीं था. हां, उनके बड़े भाई (बालेश्वर पांडेय) और भतीजे (डॉ. राजेंद्र पांडेय उर्फ भोला डॉक्टर) और श्याम नारायण पांडेय को जरूर मैं बचपन से ही जानता था. बालेश्वर बाबा अपने जमाने में ठीक ठाक डील डौल वाले पहलवान हुआ करते थे. गांधी स्टाइल में घुटने तक धोती और अमूमन सलमान स्टाइल बिना कुर्ता के जब मैं उनका सिक्स पैक ऐब देखता तो हदस जाता. भरसक मैं उनकी नजर से बचता इस वजह से भी था कि बंगाल का होने के चलते वे मुझे देखते ही अंग्रेजी के दो चार वर्ड की स्पेलिंग जरूर पूछते. मसलन कैट, रैट वगैरह वगैरह. मगर मुझे तो उनके सवालों से ज्यादा उनकी बॉडी लैंग्वेज से डर लगता था. हां, हम भोला चाचा से जरूर सामान्य संबंध स्थापित कर चुके थे, मगर उनसे ज्यादा घुला मिला उनके छोटे भाई (श्याम नारायण पांडेय) से था. कारण वे रिश्ते में भले वे मेरे चाचा लगे, मगर हम उम्र थे. गांव जाने पर साथ ही खेलते कूदते थे.
मूलतः बलिया के बलिहार गांव निवासी डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र
उसी वर्ष (1992) जनसत्ता अखबार का प्रकाशन कोलकाता से शुरू हुआ था. साहित्यकार पत्रकार अब खबर बनने लगे थे. इसी बीच एक संक्षेप खबर पर मेरी नजर पड़ी – ‘मणिमय के यशस्वी संपादक महानगर में’. मैंने वरिष्ठ पत्रकार कृपाशंकर चौबे जी की मदद से बाबा का ठौर ठिकाना पता लगाया और उन तक पहुंचा. पता लगा उनके सर्वाधिक करीबियों में मूलतः बलिया के बलिहार गांव निवासी (अब पद्मश्री) डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र शामिल हैं. उनके यहां वे अक्सर शाम को बैठकी करते हैं. मुलाकात भी हुई. आग्रह पर बाबा मेरे घर तक आए भी… सभी से मिले. पता चला वे अरसा बाद गांव से लौटे हैं. उनके दो सगे भाई गाजीपुर में भी बस गए थे. सो वे तीनों जगह घुमते फिरते रहते थे. इसके बाद वे हमारे साथ ही गांव भी लौटे.
सादर नमन….. भावभीनी श्रद्धांजलि…..
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