विनय बिहारी सिंह (वरिष्ठ पत्रकार / कहानीकार)
अमरकांत अत्यंत आत्मीय कथाकार, उपन्यासकार थे. उतने ही सहज और पारदर्शी. उनकी रचनाएं दिल को छू कर देर तक दिमाग पर छाई रहती हैं. अमरकांत की अनुपस्थिति से रिक्तता का बोध होना स्वाभाविक है. वे प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार थे. उन्होंने उस समय अपनी पहचान बनाई जब नई कहानी आंदोलन जोर पकड़ चुका था. नई कहानी आंदोलन प्रेमचंद की परंपरा का प्रकारांतर से विरोध करते हुए दौड़ रहा था. नई कहानी का नायक शहरी (गांव या कस्बे का नहीं) , व्यक्ति केंद्रित था और इसमें स्त्री- पुरुष संबंधों की भी प्रमुखता दी जाती थी. नई कहानी आंदोलन के केंद्र में थे मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव, लेकिन अमरकांत प्रेमचंद की धारा को आगे बढ़ाते रहे. पूरी मजबूती और प्रमुखता के साथ. अमरकांत मेरे गृह जनपद बलिया ( उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी थे. इसलिए मैं अपने युवा दिनों में उनके इलाहाबाद के आवास पर जाता रहता था. उनसे बातचीत कर बहुत सुख मिलता था, क्योंकि उनके जैसा सहज विद्वान व्यक्ति मैंने बहुत कम देखे हैं. उनकी हंसी और बातचीत में एक मिठास थी.
वे किसी भी पुरस्कार से बड़े थे. हालांकि उन्हें उनके उपन्यास – इन्हीं हथियारों से- के लिए 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2009 में व्यास सम्मान मिल चुका था. ज्ञानपीठ पुरस्कार भी 2009 में ही मिला. लगभग इसी के आसपास सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला था. उनकी कहानियां- डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, जिंदगी और जोंक और हत्यारे एक बार पढ़ लेने के बाद भूलती नहीं हैं. भीतर ही भीतर उसके पात्र आपके चिंतन में हस्तक्षेप करते रहते हैं. वे अपने साथ आपको बहा ले जाते हैं. दोपहर का भोजन में सिद्धेश्वरी देवी अपने उपेक्षित पति और बेरोजगार बेटों को आधा पेट से भी कम भोजन देती हैं. जाहिर है किसी का पेट नहीं भरता. सबके भोजन के अंत में वे देखती हैं कि उनके लिए सिर्फ आधी रोटी बची है. सिद्धेश्वरी देवी चुपचाप रोती हैं. उनका रोना पाठक को अतल गहराई तक हिला देता है.
सन उन्नीस सौ अस्सी के आसपास जब मैं उनसे इलाहाबाद में मिला तो वे सोवियत संघ (जिसे हम लोग बोलचाल में रूस कहते थे) की राजधानी मास्को की यात्रा से लौटे थे. उन्होंने एक दिलचस्प बात कही. स्नान के बाद समस्या थी कि भींगी तौलिया कहां फैलाई जाए. कहीं कोई अरगनी या रस्सी जैसी कोई चीज थी नहीं. तो उन्होंने गरम पानी के पाइप पर ही उसे फैला दिया. शाम तक सूख गई. इस तरकीब पर मैं और वे खूब हंसे. साहित्य की बातें भी वे इसी सहजता से कहते, बताते थे. उस दिन मैंने उनके यहां पराठा और सब्जी का जलपान किया और चाय पी. सुबह टहलने के लिए उन्होंने एक बहाना ढूंढ़ लिया था. वे उन दिनों ग्वाले से दूध लेने स्वयं जाते थे. ग्वाला स्वयं दूध दे सकता था या घर के ही लोग ले आ सकते थे. यह कोई समस्या नहीं थी. लेकिन वे सुबह ग्वाले के यहां जा कर दूध ले आते थे. कहते थे- जरा टहलना हो जाता है. लेकिन कई बार मुझे लगता था कि वे अपने कथा पात्रों से अचानक ऐसे ही मिलते थे. उन दिनों वे अपना उपन्यास- सुन्नर पांड़े की पतोहू- लिख रहे थे. उपन्यास में ढोलक की ध्वनि- कुदरबेंट, कुदरबेंट का उल्लेख अत्यंत मोहक ढंग से किया गया था. उपन्यास की भाषा- शैली और इसके संवाद समूचे पूर्वी उत्तर प्रदेश के हृदय को छू रहे थे ( इस उपन्यास का अंश किसी पत्रिका में छप चुका था और इसकी खूब चर्चा हो रही थी). इस उपन्यास पर हम देर तक बातचीत करते रहे. उन दिनों वे अस्वस्थ थे. फिर भी उनकी मोहक हंसी जस की तस बरकरार थी. जहां तक याद पड़ता है- उनकी रीढ़ में दर्द था. वे बीच- बीच में लेट जाते थे. थोड़ी देर बात दिल्ली के लिए मेरी ट्रेन थी. मैं इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के लिए चल पड़ा था.
एक जुलाई 1925 को जन्मे कथाकार, उपन्यासकार अमरकांत 17 साल की आयु के थे, तो महात्मा गांधी के- अंग्रेजों भारत छोड़ो – आंदोलन में कूद पड़े थे. जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे तो उनका संपर्क आचार्य नरेंद्र देव, राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण से हुआ. उनकी जनपक्षधरता और मजबूत हुई. उनके भीतर का लेखक और धारदार हुआ. महात्मा गांधी के आंदोलन- करो या मरो- का प्रभाव बलिया पर तो था ही यह फैल कर महाराष्ट्र के सतारा और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर तक फैला हुआ था. इसी आंदोलन पर केंद्रित उनका उपन्यास- इन्ही हथियारों से- अत्यंत रोचक है. इतिहास को कथा में पिरो कर अमरकांत ने अद्भुत प्रयोग किया है. पाठक एक बार पढ़ना शुरू करता है तो उसे खत्म करके ही छोड़़ता है. हालांकि उनके अन्य उपन्यास- काले उजले दिन, सुखजीवी, सूखा पत्ता, सुन्नर पांड़े की पतोहू आदि भी अत्यंत रोचक हैं.
अमरकांत के पात्रों का संवाद पाठक को मथते रहते हैं। हत्यारे के दो युवक कोई कामधाम नहीं करते. सिर्फ बड़ी- बड़ी बातें करते हैं. वे एक गरीब स्त्री का शारीरिक शोषण करते हैं और उसकी मजदूरी डकार जाते हैं. वे एक दूसरे से डींग हांकते हैं कि जवाहर लाल नेहरू और जान एफ कैनेडी से उनकी गहरी आत्मीयता है. प्रधानमंत्री का पद तो उन्हें सबसे पहले प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया. अराजक इतने कि अपना पीछा करने वाले एक युवक की हत्या तक कर देते हैं. हमेशा की तरह एक रात जब वे दारू पी रहे होते हैं तो एक युवक कहता है- मैं सोचता था कि जब मैं प्रधानमंत्री बनूंगा तो तुम्हें भ्रष्टाचार और जातिवाद विरोधी समिति का प्रेसिडेंट बना दूंगा. लेकिन तुम सिर्फ इतनी कम दारू पीओगे तो अधिकारियों से घूस कैसे लोगे? चार सौ बीसी कैसे करोगे? झूठ कैसे बोलोगे? तुम देश की सेवा करने लायक नहीं हो.
अमरकांत हमेशा जनता के साथ, या कहें आम आदमी के साथ खड़े रहते थे. उनका लेखन विसंगतियों पर लगातार चोट करता है. लेकिन हम हिंदी वाले अपने लेखकों को जल्दी भुला भी देते हैं. बंगाल में तो लेखकों की जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर इकट्ठा होने और उनके लेखन के बहाने देश की व्यवस्था पर बातचीत करने की परंपरा अब भी बाकी है. लेकिन हिंदी भाषी प्रदेशों में यह परंपरा खत्म होती जा रही है. इसे कैसे पुनज्जीवित किया जाए, इस पर मंथन की जरूरत है. लेखक के माध्यम से व्यवस्था पर बातचीत, मंथन और आम आदमी के सरोकार ही तो हमेशा से महत्वपूर्ण रहे हैं.
अमरकांत लंबे समय तक इलाहाबाद के मित्र प्रकाशन में संपादक के रूप में कार्यरत रहे. देखा जाए तो वे आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं थे. लेकिन दिल के धनी थे. एक बार कोई उनसे मिल ले तो उन्हें भूल नहीं सकता. ऐसे अपने लगने वाले साहित्यकारों की पीढ़ी के वे प्रमुख व्यक्ति थे. किसी युवा लेखक या पत्रकार को सिफारिशी चिट्ठी लिखनी हो तो वे झट तैयार हो जाते थे. उनकी वजह से किसी का कुछ भला हो जाए तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था, ऐसे लोगों की संख्या क्या धीरे- धीरे कम हो रही है?