सारे बवाल की जड़ तो ‘मन का काम’ न मिलना ही है

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टीचर्स डे यानि शिक्षक दिवस को यूं देखा जाए तो शिक्षक और छात्रों के लिए प्रतिदिन टीचर्स डे होता है, किंतु शिक्षा जगत में शिक्षकों के विशेष योगदान और सम्मान हेतु टीचर्स डे को मनाने से 5 सितंबर का महत्व अधिक हो जाता है. लेकिन इस विशेष अवसर पर मैं कुछ अलग बात करना चाहता हूं. हालांकि ये शिक्षा से जुड़ी हुई बात ही है पर है बहुत गहरी. मैं जिन बातों को आपके बीच रखने जा रहा हूं अगर इनको समझ लिया जाए तो शिक्षा और शिक्षक के उद्देश्यों की सफलता व विफलता को समझने जैसा होगा.

दुनियाभर में शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई. जहां से महान शिक्षकों के मार्गदर्शन में हजारों-लाखों छात्र तमाम तरह की डिग्रियां लेकर वास्तविक दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में कदम रखते हैं. जिनमें कोई डॉक्टर, वैज्ञानिक, इंजीनियर, प्रोफेसर जैसे अनेक प्रोफेशन में समाज के बीच खप जाते है.

शिक्षा की बेहतरी के लिए कितनी पुस्तकें हैं, कितने ही दार्शनिक सिद्धांतों और पद्तियों का आविष्कार किया गया. कितने धर्मों की स्थापना हुई और कितनी शिक्षा पद्तियां अपनाई गईं. लेकिन वो सभी शिक्षा पद्तिया सही मायनों में असफल हो गईं. हालांकि दुनियाभर में प्रचलित शिक्षा ने लोगों की जीवनशैली को आसान बनाया. विज्ञान और तकनीक ने बैलगाड़ी की 2 किमी प्रतिघंटा स्पीड को जेट विमान बनाकर 700 किमी प्रतिघंटा कर दिया. पिछले पचास वर्षों में सैटेलाइट और इंटरनेट की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती.

शिक्षक दिवस विशेष

लेकिन दूसरी तरफ हमारी शिक्षा प्रणाली, फिर वो चाहे किसी भी देश की हो. इसने युद्धों को रोकने में मदद नहीं की और न तो इसने संसार में शांति लाने में सहायता की है और न ही इसने मनुष्य को मानवीय स्तर पर किसी प्रकार की समझ ही प्रदान की है. इसके विपरीत, हमारी समस्याओं में और अधिक वृद्धि हुई है. हर देश विध्वंसकारी युद्ध की तैयारी में बैठा है. पूरी मनुष्यता पर किसी न किसी विचारधारा, धर्म, संस्कृति, व्यवस्था को मानने या न मानने का अव्यक्त और अदृश्य दबाव है. क्योंकि मनोवैज्ञानिक तौर पर हमें ऐसे ही शिक्षित किया जाता है और व्यक्ति तथा समाज उसी मानसिकता का संस्कारबद्ध होकर रह जाता है. जहां न कोई स्वतंत्र वैचारिक क्रांति घटती है और न ही समाज द्वेष रहित, हिंसामु्क्त जैसी भावनाएं स्थापित कर पाता जबकि कहने के लिए हर समाज शिक्षित है.

शिक्षा का कार्य कुछ डिग्रियां देकर जॉब पाने योग्य बनाना ही नहीं है, बल्कि यह समझने में हमारी मदद करना भी है कि मन किस प्रकार से काम करता है. क्योंकि मन के कार्य करने का तरीका ही अनेक उपद्रवों का कारण है, यही अनेक युद्धों को जन्म देता है, यह युद्ध हमारे परिवार में, समाज में, देश या देश के बाहर कहीं भी हो सकता है. हालांकि हमारे पास पर्याप्त संसाधन और भौतिक वस्तुएं मौजूद हैं. जिससे मनुष्य की सारी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं और वह शारीरिक-मानसिक रूप से स्वस्थ्य जीवन जी सकता है. परतु फिर भी ऐसा जीवन असंभव बना हुआ है. आखिर क्यों?

क्योंकि हर देश में मनुष्य को ऐसी शिक्षा दी जा रही है, ऐसे ढंग से संस्कारित किया जा रहा है जहां मनुष्य का परिष्कृत मन हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, यहूदी, सिख, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, राईट विंग, लेफ्ट विंग, सेक्युलरिज्म, कैपिटिलिज्म आस्तिक, नास्तिक आदि में फिक्स कर दिया जाता. इसके बाद उसकी आगे की सोचने-समझने की शक्ति नहीं रहती. इसीलिए हर देश के राजनीतिक दल और उनके नेता वहां की समूची मनुष्य जाति को अपने-अपने ढंग से समय-समय पर इस्तेमाल करते रहते हैं और ये सिलसिला अनवरत चलता रहता है. आप अगर दुनियाभर के देशों पर नजर डालें तो गरीब-अमीर, विकसित-अविकसित देशों की समस्याएं कभी खत्म नहीं होतीं. ज्यादातर समस्याएं हैं ही नहीं, क्योंकि वो काल्पनिक समस्याएं है. लेकिन उनको ऑक्सीजन देकर दशकों जिंदा रखा जाता है. तो ये कैसी शिक्षा है और हम कैसा समाज शिक्षित कर रहे हैं.

अगर वाकई हमें जीवन की समस्याओं से छुटकारा पाना है तो हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था पर फिर से विचार करना होगा. ऐसी शिक्षा प्रणाली, ऐसी शिक्षा नीति को विकसित करना होगा जो शिक्षा इंसान को इंसान से दूर न करे, जो शिक्षा एक असहाय को सहायता के लिए हाथ आगे बढ़ाना सिखाए, जो शिक्षा दो देशों में युद्ध नहीं, शांति और सौहार्द स्थापित करे. और ऐसा सिर्फ मन के स्तर पर ही हो सकता है.
अगर शिक्षक जगत परंपरागत शिक्षा से बाहर जीवन उन्नयन के मूल्यों को प्रमुख आधार बनाकर लोगों को शिक्षित और संस्कारित करें तो हम ऐसी दुनिया देख सकते हैं, जैसी हम सभी चाहते और कल्पना करते हैं.

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