हक के लिए बड़ी ताकतों से टकराने में तनिक गुरेज नहीं किए शारदानंद अंचल

अभिषेक तिवारी

आज 2 मई है, शारदानंद अँचल में आस्था रखने वाले लोगों के लिये यह तारीख अति महत्वपूर्ण है. पूर्वांचल के समाजवादियों के लिए यह दिन 12 अक्टूबर से कम मायने नहीं रखता, जहां एक तरफ देश ने 12 अक्टूबर को लोहिया को खोया था वहीं 2 मई को बलिया ने अपना होनहार बेटा खोया था. 19 जुलाई 1947 को पशुहारी गांव में जन्म लिए महान समाजवादी नेता शारदानन्द अँचल की बात कर रहे हैं, उन्होंने अपना जीवन सदा अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने व समाज में फैली गैरबराबरी को मिटाने में लगा दिया.

उनके बारे में लोग कहते हैं कि अँचल जी जन्मजात नेता थे, यही सच है. ये अँचल ही थे जो 27 साल की उम्र में आपातकाल में 19 महीने बलिया जेल में निरुद्ध रहकर देश की तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ इंक़लाब को बुलंद किया. उन पर डॉ लोहिया के विचारों का सीधा प्रभाव था, तो चौधरी चरण सिंह का अपार स्नेह था. गांव, गरीब किसान, शोषित, वंचित, पिछड़े उनकी प्रथमिकता में सबसे ऊपर थे, उन्होंने बेल्थरारोड की राजनीति में सामंती व्यवस्था को खत्म करके सभी के लिए रास्ता बनाने का लक्ष्य लेकर राजनीति करना शुरू किया, जिसमें वो सफल रहे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक रोल मॉडल बन गए.

वे कहते थे “वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नही चलेगा.” साल 1985, जब वे पहली बार लोकदल के टिकट पर चुनाव लड़े और जनता ने अपने सच्चे रहनुमा को अपनी रहनुमाई का मौका दिया. यह वो वक्त था जब सामाजिक विषमता अपने चरम पर थी, सभी राजनीतिक पदों पर कुछ विशेष वर्ग अपना एकाधिकार समझता था, पर समय अब तेजी से करवट ले रहा था, और अँचल इस सामाजिक परिवर्तन के नायक बनकर उभरे. चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद जब लोकदल में फूट पड़ी तो मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ने बढ़ने का फैसला लेने वाले प्रमुख लोगो में अंचल जी भी शामिल थे.

फिर 1989 में सीयर से वे निर्वाचित हुए और नेताजी की सरकार में लोक निर्माण के राज्यमंत्री बने. तब देश में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी बलिया के थे. उन्होंने उस समय जनपद के तीन मुख्य सड़कों को राष्ट्रीय राज्यमार्ग बनाने का प्रस्ताव केंद्र को दिया था, लेकिन समय और सामंजस्य के अभाव में यह सम्भव नहीं हो पाया. नहीं तो आज जनपद की तस्वीर कुछ और होती. अँचल जी अपने नाम के अनुरूप पूरे पूर्वांचल के नेता थे. सादगी और सर्वसुलभता इतनी कि जो उनसे एक बार मिला वो उनका होकर ही रह गया. उन्होंने कार्यकर्ता के साथ दर्जनों नेता भी बनाया.

उनके यहां मिलने जुलने वालों में क्षेत्र और दल द्वारा बंधी हुई कोई निर्धारित सीमा नही थी. वो सभी के नेता थे, क्या गोरखपुर क्या गाजीपुर और बनारस, बलिया और बैरिया हो फेफना, हर जगह उन्होंने समाजवादी मूल्यों की स्थापना के लिए लड़ने भिड़ने वाले मजबूत व स्थाई साथी बनाये. रही बात सीयर और सिकन्दरपुर की तो यह उनके घर-आँगन जैसा था. हर जरूरतमंद की सहायता करना उनके जीवन का सार था. उनका विधयाक निवास का कमरा एक आशा और विश्वास के मंदिर जैसा था, जो भी जाता, उसे वो निराश नहीं लौटने देते. बीते 3 सालों से उनकी जयंती और पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित सभी कार्यक्रम में शरीक रहने से जितने भी लोग से मिलना होता है औऱ उनके संस्मरणों को सुनकर ये अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि वे सत्य के साथ खड़े रहने वाले बहादूर लोगों में से एक थे, वे अपने लोगों के वाजिब हक के लिए बड़ी से बडी ताकत से टकराने में तनिक गुरेज नहीं करते थे. उनमे सही को सही गलत को गलत कहने का अदभुत साहस था.

एक पुराने वाकये को स्मरण करते हुए उनके पुत्र और बैरिया के पूर्व विधायक जय प्रकाश अँचल ने कहा कि एक बार वे दिल्ली से जन शताब्दी से लखनऊ आ रहे थे. स्टेशन पर नेताजी भी मिल गए. उन्होंने कहा “अँचल तुम्हारे जनपद के बड़े नेता है, यही दिल्ली में ही है, तुम मिले नहीं” उनका जबाब सीधा और स्पष्ट था ‘मिलना होता तो बेल्थरारोड से 700 किलोमीटर चलकर सैफई नहीं आता आपके यहाँ.’ ये उनकी स्पष्टवादिता का एक उदाहरण मात्र ही न होकर उनके शेरदिल व्यक्तित्व का प्रमाण भी था.

जब समाजवादी पार्टी का गठन हुआ तब बलिया की जिम्मेदारी अँचल जी के कन्धे पर थी. वह इसके संस्थापक जिला अध्यक्ष और रिजवी साहब इसके पहले महामंत्री थे. अंचल जी के नेतृत्व उस दौर के न जाने कितने ज्ञात अज्ञात लोगों ने अपने खून पसीने से सींच करके ऐसी जमीन तैयार की. जिसकी लहलहाती फसल हम सभी देख रहे हैं. जिसका प्रतिफल बलिया को सूबे अब तक की बनी सभी समाजवादी सरकार में अपने जनपद की दखल से हम सभी देख समझ सकते हैं. अँचल जी अपने इलाके के विकास को लेकर कभी समझौता नहीं किए. वे अपने ही नेता से लड़ भिड़ के अपनी बात मनवा लेते थे.

ये उनका लड़ाकूपन ही था कि हर जनपद में जहां एक बस डिपो होता था, वहां उन्होंने बेल्थरारोड को अलग बस डिपो बनवाया. नेताजी की दूसरी सरकार में जब मंत्री बने तो बेल्थरारोड का विकास दोगुनी रफ्तार से कराया. उन्होंने बेल्थरारोड तहसील की नींव और निर्माण दोनों करवाया. स्वास्थ्य सेवाओं की हालात खस्ताहाल थी. बेल्थरारोड कस्बे के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के रूप में सुविधा सम्पन कराया.

सीयर के ग्रामीण क्षेत्र में कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की आधारशिला रखी, इलाकाई पेन्शनर और वेतनभोगी के सुविधा के प्रति उनकी संवेदनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण उनके अथक प्रयास से स्थापित सीयर का उप कोषागार इसकी गवाही देता दिख जाएगा. व्यापारियों भाइयों एवं किसान साथियों के सहयोग के लिए नवीन फल एवं सब्जी मंडी का निर्माण भी बेल्थरारोड को आत्मनिर्भर बनाने का स्थायी प्रयास था. डॉ लोहिया के सिद्धांत “दवा पढ़ाई मुफ़्ती होगी, रोटी कपड़ा सस्ती होगी!” को धरातल पे उतारने हेतु उन्होंने माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा को गांव गरीब के सभी के बच्चों के लिए उपलब्ध कराने हेतु उन्होंने सीयर के विभिन्न गांवो में दर्जनों इंटर और डिग्री कॉलेजो की स्थापना की और कराई.

वे आजीवन समाजवादी पार्टी में धार देते रहे, उनका मानना था कि आंदोलन हमे ऊर्जावान और जवान बनाये रखता है. उन्होंने अपने जीवन मे बहुत सारे आंदोलन किए. जिनमें मुख्यतः अंग्रजी हटाओ, चारपाई आंदोलन, भीमपुरा थाने का घेराव प्रमुख रहे, नेताजी के नेतृत्व में हुए जेल भरो आंदोलन को जो धार बलिया ने दिया वो सर्वज्ञात है.

इन सभी ज्ञात अज्ञात शक्ति के साथ लड़ता ये सूरज जब ढला तो चहुँओर अंधेरा हो गया, उनकी अंतिम यात्रा के प्रत्यक्षदर्शियों और यात्रियों की माने तो जनता का हुजूम इतना था कि पशुहारी और तुर्तीपारघाट मिल गये हो. मानो नदी खुद निकल पड़ी हो धरती पुत्र से मिलने, आसमान में एक अजीब उदासीनता थी. उस दिन, जनसमूह इतना कि इतिहास में शायद ही कभी बेल्थरारोड में उमड़ा हो. प्रदेश और पूर्वांचल के कोने कोने से लोग आये थे. सीयर नम आंखों से अपने नेता को विदा कर रहा था. शारदानन्द अँचल अमर रहे के घोष के साथ. दिलो में निराशा लिए उम्मीदो का सूरज डुब रहा था. धीरे धीरे, एक आशा खत्म हो गई थी, पर नई संभावनाये जन्म ले रही थी.
नश्वर शरीर जल रहा था, विचार और आत्मा अमरत्व को प्राप्त कर रहे थे.

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