पुरखों की थाती को अब हम धीरे धीरे भूलने लगे हैं. हाल तक समाज का प्रबुद्ध वर्ग उन्हें शिद्दत से याद कर नई पीढ़ी के लिए नजीर पेश किया करता था. मगर यह सब अब गुजरे जमाने की बातें हो गईं. वह परम्परा ही खत्म हो रही है. कई बार लगता है अपना कद गौण होने की आशंका लोगों को ऐसा करने से रोकती होगी. वैसे भी नकली लोगों को हमेशा असली लोगों से डर लगता रहा है. उनके रहने पर भी और नहीं रहने पर भी.
कल 20 जुलाई थी. 1942 के क्रांति के महानायक स्वंतन्त्रता संग्राम सेनानी पंडित देवनाथ उपाध्याय की 28 पुण्यतिथि थी. आम चर्चा में मैंने उनका नाम तो अपने समाज के लोगों से सुना था, पर हर किसी की अपनी रुचि एवं समझ होती है. उन्होंने जिस तरह उनके व्यक्तित्व को रेखांकित किया वह उनके साथ बेईमानी रही. आज मैंने उनके द्वारा लिखी गई दो पुस्तकें पढ़ी हैं. जिसमे पहली ‘बलिया में क्रांति और दमन’ अपने आप में पूरी स्मृति ग्रन्थ है 1942 की क्रांति का.
हमारे पुरखे कैसे ब्रितानी हुकुमत के खिलाफ़ मुखर हुए, हर एक स्थान पर बगावत किए एवं सभी क्रांतिकारियों के वीरगाथा के समेटे हुए, इस लड़ाई में मातृभूमि के सम्मान में अपनी प्राण की आहूति देने वाले सभी वीर पुरुषों के नाम एवं संस्मरण में स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं.
इस पुस्तक को पढ़ने पर यह ज्ञात हुआ कि बेल्थरारोड का बगावत कितनी ताकतवर रही. लोगों ने स्टेशन तक फूंक डाला. माल गाड़ी लूट ली. पोस्ट ऑफिस, उभांव थाने तक पर कब्जा कर लिया.
अपने सिकन्दरपुर के क्रांतिकारी लोगों ने थाने पर दो बार कब्जा किया. पहली बार झण्डा फहरा के ही छोड़ दिया, जबकि दूसरी चढ़ाई में खटिया, मचिया, जंगला, किवाड़ सब उखाड़ ले गए. वही क्रांतिकारियों ने सिकन्दरपुर पुलिस चौकी के मवेशी जेल में कैद पशुओं को आजाद करवाया. पुलिस चौकी को आग के हवाले कर दिया.
कैसे फेफना, रतनपुरा, रसड़ा में ट्रेनें रोकी गईं. बीज गोदाम में लूट हुई. पोस्ट ऑफिस में रसीदी टिकट जलाये गए. सभी सरकारी दफ्तरों पर तिरंगा फहराया गया.
बैरिया, गड़वार, उजियार, भरौली से लेकर नरही एवं सुरही तक का सम्पूर्ण संस्मरण लिपिबद्ध है. उनकी पुस्तक में इसे पढ़ हम जान सकते हैं कि बलिया चौक में कैसे हमारे युवा क्रांतिकारियों के नंगे बदन पर कोड़े बरसाये गए, पर वे टस से मस नहीं हुए.
अब विषयांतर को समाप्त करते हैं. हम चलते है उस महान हस्ती की तरफ, जिसकी स्मृति में कल का दिन समर्पित था. देवनाथ उपाध्याय का जन्म नवानगर के निकट मलेजी गांव में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीएससी और एमए की पढ़ाई की. साथ ही स्वधीनता आंदोलन में भी सक्रिय भागीदारी किए. बलिया में अगस्त क्रांति में बड़े नेता गिरफ्तार हो गए तो उन्होंने मुहिम को जारी रखा. जिसकी एवज में ब्रिटिश हुकमत ने उन्हें 18 महीने तक जेल में रखा.18 महीने तक जेल में तमाम यातनाओं को सहन करने के बाद में छूटे, पर उन्होंने देश के आजाद होने तक अपना अभियान जारी रखा.
शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार मानते थे वे. समाज को जागृत करने का कर्तव्य उन्होंने बखूबी निभाया भी. बेल्थरारोड स्थित डीएवी इंटर कॉलेज इसका उस महान गौरवपूर्ण परम्परा का सबसे बड़ा उदाहरण है. बाद में उन्होंने 90 के दशक में वहां स्वंतत्रता संग्राम सेनानियों के स्मारक का निर्माण करवाया. उनके प्रयासों से नवानगर में पुरुष एवं महिलाओं के लिए अलग अलग अस्पताल बने. वहीं बालिकाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने नवरतनपुर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बालिका जूनियर हाईस्कूल की स्थापना की. समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुए वे इस दुनिया से विदा हुए.
आज भी गाहे बेगाहे उनकी व्यक्तित्व एवं कृतियों की चर्चा होती है तो ऐसा लगता है कि वह हमारे आस-पास ही मौजूद हैं. अपने महान कृतित्व के तौर पर.
पुण्यतिथि पर उस महान हस्ती की स्मृतियों को नमन…. आदरपूर्ण श्रद्धांजलि