डोली-पालकी के स्थान पर अब हैं लग्जरी गाडि़यां
चलो रे डोली उठाओ कहार, गीत आज भी कर करता है हर मन को रोमांचित
लवकुश सिंह
भारतीय संस्कृति विलक्षण है. ऐसी संस्कृति दुनिया के किसी अन्य देशों में देखने को नहीं मिलेगी. यह दलील इसलिए भी सही है कि यहां की मिट्टी में कई मजहब, भाषा, रीति-रिवाज, रहन-सहन हमें कदम-कदम पर बदलते हुए मिलते रहते हैं. वहीं रीति- रिवाज एक समय ऐस भी आता है कि वह ताउम्र याद बन कर रह जाते हैं. आधुनिक युग में भग-दौड़ की जिंदगी जीता इंसान भी उन यादों को चाहकर भी भूला नहीं पाता. हम यह देख और महसूस कर रहे हैं कि शहर से लेकर गांव तक संस्कृति और परंपराओं में अब काफी हद तक बदलाव आ चुका हैं. आधुनिकता ने जहां हमारा नजरिया बदला है, वहीं शहरीकरण व औद्योगिकीकरण ने संस्कृति रीति-रिवाज में भी मजबूती से दखल दी है. जिससे कुछ रीति-रिवाज लुप्त हो गए और कुछ आखिरी सांसे गिन रहे हैं. ऐसी ही एक प्रथा या प्रचलन की याद आज भी सभी के जेहन में काफी मजबूती से स्थापित है. वह दुल्हा-दुल्हन की कभी शान रही डोली या पालकी, जिस पर सवार होकर दुल्हा शादी करने जाता था और दुल्हन को विदा कराकर घर वापस आता था.
चार कहार उस डोली या पालकी को लेकर जब गांव से गुजरते हुए, दुल्हा या दुल्हन को लेकर घर पर पहुंचते थे, तो गांव भर की महिलाओं और युवतियों की भीड़ यह कहते हुए उस ओर दौड़ जाती थी, कि चलों देंखें, दुल्हन आ गई । वह डोली और वह पालकी शायद अब फिल्मी गीतों और कथा कहानियों में ही सिमटने लगे हैं. फिल्म जानी दुश्मन का गीत ‘’चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की ऋतु आई’’ सुनते हैं तो आज भी मन रोमांचित हो जाता है, पर अफसोस शादी-विवाह के बदलते माहौल में आज डोली का रिवाज ही प्रचलन से बाहर हो चुका है. अब उसके स्थान पर लग्जरी गाड़ियां हैं. अधिकांश लोग मानते हैं कि समय के बदलाव के सांथ यह सही भी है. इससे समय का बचत होने के सांथ-सांथ दुल्हा-दुल्हन लंबी दूरी भी आसानी से तय कर लेते हैं, किंतु उन यादों का क्या ? जो आज भी डोली को देख कर, समस्त स्मृतियों को सामने लाकर खड़े देते हैं.
अब मजबूरी में ही लोगों के लिए आवश्यक है डोली
आज एक कुम्हार गांव की पगडंडी पर अपनी साइकिल के पीछे की सीट पर उसी डोली को बांधे अपने घर जा रहा था. उसे देख मै खुद को रोक नहीं सका. मैने उसे कुछ पल के लिए सड़क पर ही रोककर, आज के हालात को उसी के मुंह से जानने का प्रयास किया. उससे पूछा कि अब डोली की कितनी पूछ है ? एक झटके में ही उस कहार ने जबाब दे डाला कि अब लोग मजबूरी में ही हमें याद करते हैं. मतलब शादी-विवाह वाले घरों तक यदि चारपहिया वाहनों के जाने लायक सड़क नहीं है, तभी लोग कुछ देर के लिए हमारा साटा करते हैं, और हम दुल्हा या दुल्हन को गाडि़यों से उतार कर उनके घर तक पहुंचा देते हैं. अन्यथा हमारी जरूरत अब किसी को नहीं रही. उसने अपना घर लक्ष्मण छपरा के समीप मठिया पर बताया. उक्त कहार को समय के बदलाव से भी कोई शिकायत नहीं थी. सीधे तौर पर कहा कि अब समय बदल गया है. आराम के सांधन हो गए, तो फिर लोग डोली का चक्कर ही क्यों रखें ? बताया कि अब हम भी दूसरे धंधे से जुड़ चुके हैं. अब लग्न में कुछ जगहों पर जब हमारी जरूरत पड़ती है तो, जाते हैं. बाकी के दिनों में दूसरा काम करते हैं.
यह हैं डोली से संबंधित मन को रामांचित कर देने वाले गाने
- चलो रे डोली उठाओ कहार पिया मिलन की रूत आई…
- मैं ससुराल नहीं जाउंगी डोली रख दो कहारों…
- उठा ले जाउंगा तुझे मैं डोली में…
- जल्दी-जल्दी चल रहे कहार सुरुज डूबै रे नदिया…
- निमिया तले डोली रख दे मुसाफिर…