बलिया जिला नाही नेशन ह…… इहे त बड़का टेंशन ह
तीन या चार साल पहले की बात है… भतीजे-भतीजी का मुंडन था… चैनछपरा के गंगा घाट पर पूरे कुनबे के साथ मैं भी मौजूद था… सूर्यदेव के तल्ख तेवर के चलते वहां रेत पर पैदल चलना भारी पड़ रहा था….. इसलिए गाड़ियां पांच-सात सौ मीटर पहले ही खड़ी कर दी गई…. घर का पदेन और उम्र के लिहाज से भी सबसे बुजुर्ग पुरुष सदस्य मैं ही हूं…. इसलिए पिछली पांत में थोड़ी छांह तलाश डेरा जमा लिया….
दूरी बनाने की एक वजह यह भी थी कि बैंड बाजे वाले पूरी तन्मयता से अपने कस्टमर का पाई-पाई चुकाने की मुद्रा में कानफाड़ू परफॉर्म कर रहे थे… ऊपर से मौजूद दर्शकों के मनोरंजन के लिए फ्री गिफ्ट की तर्ज पर दो-तीन नर्तकियां भी थिरक रही थी….
ब़ॉलीवुड की कृपा से परसेप्शन ऐसा बन गया है या बना दिया गया है कि यूपी-बिहार को लूटने के लिए इतना तो काफी होता है…. पूरी भीड़ उन्हें चारों तरफ से घेरे मस्त थी…. मेरे ही कुछ कुटुंबों की बातचीत से पता चला कि इ सब जबरदस्त इंतजाम द्वाबा वाले पाड़े बाबा का है… पाड़े बाबा के चेहरे पर फिसलती खुशी और चमक….. उनका बॉडी लैंग्वेज उनके गौरव बोध को बखूबी बयां कर रहा था…. अपनी भाव भंगिमा से वे सेंचुरी ठोक चुके विराट कोहली को भी मात दे रहे थे…
इसी बीच अचानक रेत पर ही कुछ घोड़े चहलकदमी करते दिखे… घुड़सवारों की कोशिश थी कि वे दौड़ें, मगर भला ऊंट के रोल के साथ घोड़े कैसे न्याय कर सकते हैं…. मगर पार्टी ने तो इसके लिए पैसे का भुगतान किया है… फिर इसी बीच डांस में चांस मार डाइवर्ट हुई भीड़ घुड़दौड़ की तरफ लपकी…. किसी ने कहा – ओहार में भला घुड़दौड़ होला… उहो गंगा जी के तीरे… असल में घाट पर मुंडन कराने के लिए और भी कई गांव लोग आए थे… मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि घुड़दौड़ कराने वाली पार्टी किस गांव की थी… किसी ने बताया कि ना दौड़ी त सुबहित लौटबो ना करी लोग….. एह से दउरे के त परी…..
इसी बीच किसी ने कमेंट किया कि एहि से कहाला कि बलिया जिला ना नेशन ह…..
मेरी समझ से यही शायद सबसे बड़ा टेंशन भी है बलिया के लिए…..
मणिमय कलकत्ता के यशस्वी संपादक रहे राम व्यास पांडेय ने अपनी लेखनी में समुद्र में अदहन देने जैसे प्रयोग बखूबी किया है… मेरी समझ से यह बलिया की माटी की तासीर को बखूबी बयान करता है… स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं आदमी का विजन बड़ा होना चाहिए… मगर विजन अर्थात दृष्टि और मनबढ़ई के बीच की बारीक रेखा की शिनाख्त तो करनी ही पड़ेगी….. क्योंकि रेत के किले में रहने के भी अपने खतरे होते हैं….
स्वाभाविक था चंद्रशेखर का नाराज होना…
हाल ही में ख्यातिलब्ध वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम जेठमलानी का निधन हो गया… उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि… मगर जेठमलानी का जब भी जिक्र होता है, मुझे वीपी सिंह और चंद्रशेखर का सत्ता संघर्ष याद आ जाता है…. राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को पराजित करने के बाद जनता दल के सांसदों की बैठक होनी थी…. सुनियोजित रणनीति के तहत वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री पद के लिए देवीलाल का नाम बैठक में शुरू में ही प्रस्तावित कर दिया…. क्योंकि वीपी आश्वस्त थे कि अगर संसदीय दल को नेता चुनने की छूट दी गई तो चंद्रशेखर भारी पड़ेंगे… मगर देवीलाल का नाम सामने आते ही चंद्रशेखर ने कदम पीछे खिंच लिया… इसी बीच देवीलाल ने कहा कि मुझे ताऊ की भूमिका में ही रहने दिया जाए…. प्रधानमंत्री वीपी सिंह को बनाया जाए… जाहिर है यह सब सोची समझी रणनीति थी… स्वाभाविक था चंद्रशेखर का नाराज होना…
अब वीपी के कैबिनेट में जुगाड़ के लिए चुहा दौड़ शुरू हुई…. राम जेठमलानी वीपी के गुड बुक में अपना नंबर बढ़वाने के लिए कुपित चंद्रशेखर के यहां धरने पर बैठने पहुंचे… कुछ युवा नेताओं ने उनके साथ हाथापाई कर दी… और उन्हें मैदान छोड़ भागने पर मजबूर कर दिया…
माना जाता है कि ऐसा करने वाले युवक पूर्वांचल विशेष तौर पर बलिया के थे… बेशक चंद्रशेखर बलिया के गौरव हैं… उनकी हर उपलब्धि से बलिया वालों का सीना उतान होता है…
विरासत में बलिया को भृगु जैसे ऋषि मिले जो विष्णु की ही छाती पर लात रख दिए… व्यावहारिक जीवन में बलिया क्षमा बड़न को चाहिए सिर्फ बांचता है, मगर छोटन को उत्पात जरूर पढ़ता है…. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मंगल पांडेय और चितू पांडेय सरीखे नायक मिले…. और आजादी के बाद चंद्रशेखर जैसा युवा तुर्क…. जो संसद में दहाड़ते थे तो बहुतों की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी… इसके इतर भी बलिया के रण बांकुरों ने राजनीति, अफसरशाही, साहित्य, शिक्षा, कला, फिल्म, व्यवसाय से लेकर खेल कूद तक कई मोर्चों पर देश के कोने कोने में अपनी प्रतिभा का बखूबी प्रदर्शन किया…. मगर इसका अक्स कम से कम जिले में तो नहीं दिखता… जिले की माली हालत मेरे इस दावे की तस्दीक करती है…
दिनभर पान चबाते गलचौरन करते देखना आम बात थी
बचपन में गांव आता था तो खादी कुर्ता पायजामा पहने नेताओं को सुबह नहा धोकर शहर के लिए रवाना होते और दिनभर पान चबाते गलचौरन करते देखना आम बात थी…. उन दिनों बैरिया से बलिया के लिए बसें चलती थी…. इसमें फ्री जर्नी करने वालों का तादाद ठीक ठाक होती थी…. अदना सा कोई छुटभैया नेता भी किसी ढाले पर खड़ा होकर बस वाले को धमकाता कि फोर देब शीशा तहार… रोक… वक्त बदला… धीरे धीरे बसें बंद हो गईं या बहुत कम हो गईं… उसकी जगह विक्रम और आटो ने ले लिया…. मगर दबंगई का खामियाजा कौन भुगता… जो पूंजी अर्जित करना जानता है…. जाहिर है वह उसके निवेश का वैकल्पिक इंतजाम भी करना सीख ही जाता है….
तहरा के शहर में पढावल लिखावल कुल्हि बेकार बा
साल 2001 में मेरे चाचा एसजीपीजीआई लखनऊ में गंभीर हालत में भर्ती थे… उनसे मिलने मुझे उत्सर्ग एक्सप्रेस से जाना था… मैं गांव पर रहने वाले एक छोटे भाई के साथ स्लीपर कोच में बलिया स्टेशन पर चढ़ा… एक खाली बर्थ देखकर हम दोनों उस पर बैठ गए….. टीटी के आने पर मैंने आग्रह किया कि हमें दो बर्थ एलॉट कर दें, हम उसका वाजिब शुल्क अदा कर देंगे…. टीटी ने चेकिंग निबटाने के बाद कोई उपाय करने का भरोसा दिया…. टीटी के वहां से उठते ही मेरे छोटे भाई ने मुझसे कहा – भईया तहरा के शहर में पढावल लिखावल कुल्हि बेकार बा…. कईसन पत्रकार हव भाई… अरे हेमे रोकी के हमनी के… देखत नईख पूरा ट्रेनवे खादी कुर्ता पायजामा वालन से भरल बा…. इ त ट्रेनवे ह बलिया के नेतन के राजधानी पहुंचावे खातिर…. आजमगढ़ पहुंचते पहुंचते बवाल हो ही गया… किसी नेताजी के शागिर्दों ने टीटी को दौड़ा लिया…..
उत्सर्ग एक्सप्रेस वाले प्लेटफॉर्म पर रेलवे का विशेष चेकिंग अभियान
लखनऊ स्टेशन पर भी मैंने गौर किया कि स्पेशली उत्सर्ग एक्सप्रेस वाले प्लेटफॉर्म पर रेलवे का विशेष चेकिंग अभियान चल रहा था… तब उत्सर्ग छपरा से लखनऊ के लिए ही चलती थी… इसी बीच मेरा तबादला अमर उजाला जालंधर से अमर उजाला वाराणसी के लिए कर दिया गया… बाद में एक रिपोर्टर ने जानकारी दी कि बेटिकट यात्रियों के चलते उत्सर्ग एक्सप्रेस रेलवे के लिए घाटे का सौदा साबित हो रही है… हालांकि बाद में उसके रूट में व्यापक बदलाव कर दिया गया….
क्या हमारी अत्यधिक राजनीतिक चेतना ओवरडोज साबित हो रही
अगर आप सोशल साइटों पर नजर दौड़ाएं तो बहुतेरे बलिया वाले बहादुर बागी, बाबा, शेर, बब्बर शेर, माफिया, रंगबाज, दबंग वगैरह जैसे तमगे अपने प्रोफाइल में चिपकाए मिलेंगे…. मगर क्या यह सच नहीं है कि नकारात्मक बड़बोलापन हमें लक्ष्य से भटकाता है…. यक्ष प्रश्न तो यह भी है कि बाबा का पहलवान होना नाती-पोतों के लिए कितना मायने रखता है… क्या हमारी अत्यधिक राजनीतिक चेतना ओवरडोज साबित हो रही है…. बलिया वालों का यह परसेप्शन भी चौकाता है कि सारी दिक्कतों की वजह राजनीति है…. जन प्रतिनिधि हैं… उन्हें चुनता कौन है…. क्यों चुनता है….. बलिया के हर सफल राजनेता के पीछे डंडा झंडा ढोने वाली अच्छी खासी युवाओं की भीड़ है… चाहे वह किसी भी पार्टी का हो…. यह भीड़ अपने नेता तक और नेता अपनी बात विधानसभा और लोकसभा और राज्य सभा या फिर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक क्यों नहीं पहुंचा पाते हैं……
गंगा, घाघरा, सरयू, टोंस अर्थात तमसा ही नहीं, लगातार हुई छप्पर फाड़ बारिश के बाद आंवला नाला, लकड़ा नाला, कटहल नाला और सुरहा ताल ने भी जिले की एक अच्छी खासी आबादी पर कहर बरपा रखा है….. मगर कोई पूछनहार नहीं है…. बर्बादी तो हुई ही….. यहां तो अस्तित्व पर ही संकट मंडरा रहा है……. और ऐसा तब है जब जिले में पब्लिक से ज्यादा आबादी नेताओं की है…..
जय हो भिरुग बाबा
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