तेजी ईशा
पूर्वांचल और बिहार के ज्यादातर इलाकों में जिउतिया (जितिया) मनाया जाता है. इस पर्व में महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं, सिर्फ महिलाएं, पुरुष नहीं.
थोड़े समय पूर्व तक यह उपवास सिर्फ पुत्रों के लिए किया जाता था. लेकिन “जितिया पावैन” एक अपभ्रंश है. इसका सही नाम होता है जीविकपुत्रिका व्रत (जीवित्पुत्रिका व्रत). ध्यान दीजिये, यहां “पुत्री” शब्द है, पुत्र नहीं. धीरे धीरे कभी पिछले हज़ार-बारह सौ सालों की गुलामी में इसका स्वरूप बिगड़ा और यह सिर्फ पुत्रों के लिए हो गया.
अब, यानि आजादी के बाद के सालों को देखिएगा तो अपने आप ही भारत का बहुसंख्यक समुदाय इस व्रत को पुत्रियों के लिए भी मनाने लगा है. इसके लिए कोई संघर्ष का लाल झंडा किसी ने नहीं उठाया. कोई समाज सुधार के नाम पर इसके जरिए वोटों की खेती भी नहीं कर पाया. कोई मूर्ख आपको इस परंपरा को पुत्रियों से भी जोड़ने पर “धर्म संकट में” का बिगुल फूंकता भी नहीं दिखेगा. अपने आप होने लगा.
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सनातन हिन्दुओं कि ये स्वतः सुधार और परिवर्तन की परंपरा भी उन्हें अन्य से अलग करती है. भारत के बहुसंख्यक समुदाय को आम तौर पर अपनी परम्पराओं के लिए सिर्फ लांछित होने की ही आदत होगी, लेकिन कई चीज़ें तारीफ के लायक भी हैं.
(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की शोधार्थी हैं)