मूसलाधार बारिश के कारण इन दिनों लोग दोहरी मार झेल रहे हैं. सबसे पहले तो लोगों के घरों के सामने और इर्द-गिर्द जलजमाव. दूसरा, उफनती नदियों के विनाशकारी तेवर. इसका खामियाजा भी कमोवेश सभी भुगत रहे हैं. त्योहारों के मौसम में लोगों से खुशियां मनाने का मौका भी जैसे छीन लिया गया. किसने छीना, यह तो अलग बात है मगर इसे नजरंदाज भी तो नहीं किया जा सकता है.
बाढ़ के कारण हो या बारिश के, लोगों को अपने घरों से निकलने के लिए भी नाव की जरूरत पड़ने लगी है. पानी की निकासी का सही इंतजाम नहीं है. अगर ऐसा है तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. क्या स्थानीय प्रशासन और पंचायत इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? बिल्कुल हैं.
सरकार तो आये दिन लोगों को सुविधाएं देने की घोषणा करती रहती है. घोषणाओं के बीच इसका ध्यान भी रखना चाहिए कि सभी को सुविधायें मिलीं भी या नहीं. इस बात का नितांत अभाव ही दिखता है, भले ही सरकारें बदलती रहती हैं. व्यवस्था में बदलाव न के बराबर ही दिखता है. सभी अपने-अपने तरीके से जनता को उलझनों में ही डाल देती हैं.
दुर्गति तो गांवों और शहरों के लोग दोनों की हो रही है. बिजली-पानी जैसी सुविधओं से महरूम होते हैं. सबसे ज्यादा दुर्गति तो गांव के लोगों की हो रही है. गंगा और घाघरा नदी के अलावा टोंस नदी भी उनको तेवर दिखाने लगी है. तटवर्ती गांवों के लोगों की आंखों के सामने उनके आशियाने ध्वस्त होते रहे, खून-पसीने से उपजायी फसलें उनकी आंखों के सामने पानी में डूबती रहीं.
इससे ज्यादा त्रासदी और क्या हो सकती है कि आज की तारीख तक सड़कों के किनारे शरणार्थी की जिन्दगी गुजार रहे हैं. खाने के लिए दो रोटी भी जिनको मयस्सर नहीं हैं.
उनको भोजन मुहैया करने में भी प्रशासन की तरफ से कोताही देखी गयी जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद राहत में कोई कमी न आने देने की बात कह गये थे. सड़क से गुजरते वाहनों की ओर हसरत भरी निगाहों से निहारते हैं- शायद कोई पेट की आग बुझा दे. अन्नदाता ही दो दाने के लिए मोहताज है.
इस पर एक दोहा बरबस याद आता है:
कोऊ नृप होहिं हमहीं का हानी, चेरी छांड़ि ना होयब रानी