चकिया (बलिया) के मूर्धन्य कवि केदार नाथ सिंह कहा करते थे ‘इन्तज़ार मत करो/ जो कहना है कह डालो / क्योंकि हो सकता है /
फिर कहने का कोई अर्थ न रह जाय’
मिंकु मुकेश सिंह
(युवा लेखक/ब्लॉगर)
आपका पुश्तैनी घर अब बूढ़ा गया है और धीरे-धीरे उसके मुंडेर गिर रहे हैं. साज-सज्जा और प्लास्टर अब दीवार से अलग हो रहे हैं. उस जगह पर अब दिन भर कुत्ते बैठते हैं, जहां से घर के बड़े बुजुर्ग (बाबा) सबको डांटते, बोलते और गरियाते थे. ट्रैक्टर जहां खड़ा होता था, वहां अब दीमक और चींटियों का डेरा है.
घर साफ साफ कह रहा है कि आप सब के जाने के बाद अब कोनों में मकड़ियों के झाले बहुत हैं और मरदानी कोठारी और बंगले की वो सुनी चौकियों/तखत पर अब धूल जमी रहती है. जिस घर में दिन भर धमाचौकड़ी होती थी, बर्तनों की आवाज होती थी, नल चलाने की धुन आनी थी और खाद, बीज, अनाज की बात होती थी, वहां अब सन्नाटा रहता है.
बाहर वाले बइठका की वो आलमारियां अब खाली हैं, जिसमे IIT, CPMT, PMT, ENGINEERING, DIPLOMA, BSC और हाई स्कूल से लेकर स्नातक तक कि किताबें होती थी. असल में ये मेरे घर की समस्या नहीं है, अब तो मेरा गांव शहर में रहता है और मेरा शहर ……माफ़ कीजिएगा मेरा नहीं. शहर तो शहर है, वो हम सबके दिमाग में रहता है.
गांव अब जीता नहीं. इंतज़ार करता है, उनका जो शहर चले गए हैं और साथ ले गए हैं गांव का लड़कपन, उसका बांकपन, उसकी मिट्टी, उसके सपने और उसका दीवानापन. बरसात में बूढ़े दालान पर बैठकर अपनी बूढ़ी बीवियों और जवान बहुओं को गरियाते हैं या फिर अपने छोटे छोट पोते पोतियों की नाक से निकलता पोटा पोंछते हुए कहते हैं कि छोटा ही रह. उन्हें डर है कि पोता भी बड़ा होते ही शहर हो जाएगा.
शहर कभी कभी गांव आता है. होली दीवाली में. दो चार दिन रहता है. अपने कोलगेट से मांजे गए दांतों से ईख चूसने की कोशिश में दांत तुड़वाता है और फिर ईख को गरियाते हुए गांव को रौंद कर निकल जाता है.
फिर गांव इंतज़ार करता रहता है कि कब शहर आएगा और भैंस को दाना खिलाएगा. हल या ट्रैक्टर से खेत जोतेगा और बीज बोएगा. कब अपनी भीनी आवाज़ में गीत गाते हुए फसल काटेगा और कब चांदनी रात में कटी फसल पर अपनी बीवी के पसीने में लथपथ होगा.
ऐसा होता नहीं है. शहर अब फ़िल्मी गाने गाता है. ट्रैक्टर चलाने की बजाय ट्रैक्टर के पीछे हेलमेट लगा कर बैठता है. बुलडोज़र और गारा मशीन की आवाज़ों के बीच मशीन हो जाता है. दिन रात ठेकेदार की गालियां सुनता है. शाम को अपनी दिहाड़ी लेकर कमरे पर लौटता है और दो रोटियां सेंककर सो जाता है कल फिर मुंह अंधेरे उठ कर काम के इंतजा़र में.
सब कहते हैं गांव बदल गया है.
हां गांव बिल्कुल बदल गया है. अब गांव भी शहर की तरह भूतिया हो गया है जहां सिर्फ़ औरतें और बूढ़े दिखते हैं. खेत खलिहान सूखे और पानी की किल्लत दिखती है. लोकगीतों की बजाय फ़िल्मी गाने सुनाई पड़ते हैं और लोग कहते हैं अपने काम से काम रखो.
दीवाली आने को है आपके दिल्ली, बम्बई वाले फ्लैट पर चाइनीज झालरें टिमटिमाएंगी और आपके पुश्तैनी घर में?
खैर…. गांव आइये यहां के पोखर, तालाब आपका इस छठ में बेसब्री से इंतजार कर रहे है??
आज के लिए बस इतना ही… आगे लिखने के लिए दिल निकालना पड़ेगा….
“एक लड़का शहर की रौनक में सब कुछ भूल जाए
एक बुढिया रोज़ चौखट पे दिया रौशन करे”
Bahut aacha likha h bahi