पूस में कउड़ा मने आगि में अमरित

चंद्रेश्वर

वरिष्ठ साहित्यकार

चइत के जाड़ दुलरुआ होला, गाल से गाल सटावेला

अइसे त हमार गाँव आशा पड़री में आपन दुवारे -दुवारे लोग कउड़ा जरावे सुरू क देत रहे अगहने से. अगहन से भोर में जड़हे लागत रहे आदमी; बलुक साँच कहीं त कातिक के अँजोरिया के खस्ठी -सतमी तिथि ले मने छठी मइया के पूजा के दिन ले जाड़ बुझाए लागत रहे. हमनी के बचपन में साँझि आ फेरु अगिला दिन भोर में छठि मइया के घाटे माई आ ईया के साथ जात रहीं जा त सुइटर पहिने के परत रहे भा गाँती बान्हे के परे. किछु लोग त छठि के घाटे अगिला दिन उगत सुरुज महराज के अरघ देबे के पहिलहीं भोरहरिए पुअरा आ सूखल पतई से कउड़ा जरावे लागत रहे. कउड़ा ओही दिन से ज़रूरत बन जात रहे. ह त, ‘अगहन आ हाड़ी में अदहन’. अगहन से दिन बहुत छोट होखे लागत रहे. अइसे त भादो में परेवाला परब बहुरा से दिन लहुरा होखे लागेला. जे बा से कि अगहने से कउड़ा जरे लागत रहे गाँव में. ई क्रम चलत रहे माघ पंचमी आ खींचखाच के फगुआ ले. रामउदार तिवारी के दुवार प त कउड़ा जरे चइत ले. ऊ कहसु कि चइत के जाड़ दुलरुआ होला. गाल से गाल सटावेला.

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भादो में त जेवन कीच-काँच आ बिछलहर होला कि ….

गाँव में कउड़ा के जगह बहुते बिसेख होत रहे आ ऊ कउड़ राम उदार तिवारी के होखे त बतिए किछु अवरू हो जात रहे. उन्हुकर दुवार एक त एगो छोटहन फ़ील्ड से कम ना रहे. ओह में आगे गाइ -गोरू आ माल-मवेसी के खियावे खातिर चरन बनल रहे आ दू गो पुरान कटहर के फेड़ रहन स. हर साल ओह कटहर के लेण्हा लोग रहता चलत चोरा लेत रहे. रामउदार तिवारी के घर के बगल से जेवन गली गाँव से बहरी सड़क प जात रहे, लोग ओह प ना चल के इन्हिकर दुवार ध के जात रहे आ एही मोका के फ़ायदा उठा के, नज़र बचा के लेण्हा तूर लेत रहे. एह बात से दिक्कत महसूस क के उन्हुकर जेठ बेटा गुलज़ार तिवारी (हरि नारायण तिवारी) जब दुवार घेरवावे लगलन त इन्हिकर छोट भाई भोजपुरी के लोककवि सुराज तिवारी गाना लिखले रहन कि –” चालू हटे राह भइया, एह प खूँटा जनि गाड़. बिगड़ल बा पहिले से जेवन, अबो बना ल.” लोककवि के पुरअसर आ मरम के तीर लेखा भेदेवाली पुकार के अनसुना क दिहल गइल. एहिजा हिन्दी के कबी मुकुतीबोध (गजानन माधव मुक्तिबोध) के कबिता के एगो लाइन मन पर रहल बा — “मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं! ” इन्हिकर बड़का भइया बहिरी कछा घललन. आजु गाँव से बाहर सड़क प ओह गली से जाए में बहुते सकेत होला. मोटरसाइकिल आ साइकिल कठिनाइए से निकल पावेली स. बरसात आ भादो में त जेवन कीच-काँच आ बिछलहर होला कि कतने लोग जे सम्हरि के ना चले ऊ एह गलिया में भद -भद फेंका जाला. एही गली के अगिला मोड़ प हमार बाबूजी गिरल रहन आ कमर के चोट से बइठका हो गइलन.

ई कउड़ा जेनरल नॉलेज़ बढ़ावे खातिर कोचिंग सेंटर के काम करत रहे

राम उदार तिवारी के जेठ बेटा गुलज़ार तिवारी गाँव के डाकघर के डाक मुंसियो रहलन. ह त बात कउड़ा के चलत रहे. उन्हुका दुवार प कउड़ा तापे खातिर ढेर लोग जुटत रहे. ऊ कउड़ा एक तरह से बतकूचन आ गाँव भर के राजनीति के अड्डो रहे. कबो -कबो एह कउड़ा प अनमुनाहे दखिन भा बिचलो टोला के लोग चल आवत रहे, दिसा-फराकत के बाद. एहिजा एक से एक बतकही आ बहस के छिड़ल देखले बानी जा भा ओकर गवाह बानी जा हमनी के. ई कउड़ा जेनरल नॉलेज़ बढ़ावे खातिर कोचिंग सेंटर भा इसकूलो के काम करत रहे. एहिजे हम ढेर मुहावरा आ लोकोक्तियन के सुनले रहीं, जेवन हमार आजु अनुभव कोष के कबो ना नष्ट होखे वाला थाती भा पूँजी बा. एहिजा केहू कबो रेडियो ले के आ जात रहे त भोर के न्यूज़ सुने के मिल जात रहे. एहिजा बात चले इंदिरा गांधी के आ पहुँच जात रहे हिटलर प. सन् चौउहत्तर के बात होई जब जेपी आंदोलन चलत रहे आ इंदिरा गांधी इमरजेंसी थोपले रही देस प. हम ओह कउड़ा प सुनले रहीं कि इंदिरा गांधी के दमन से ढेर बिपच्छ के नेता भूमिगत (अंडर ग्रांउड) हो गइल बा. ओह में कर्पूरी ठाकुर के संगे रामानंद तिवारी के नाव सुने के मिले त जार्ज फरनांडिसो के. लालू आ नीतीश ओह घरी नवहा समाजबादी रहे लोग. संपूरन किरांती के सिपाही. ई लोग कहाँ से चल के कहाँ पहुँच गइल! ओहिजे उन्हुकर डाइनामाइट कांड प बतकही सुनले रहीं. ओहिजे भोला तिवारी राष्ट्रकबी दिनकर जी आ मैथिली शरण गुप्त के क क गो कबिता सुनावसु मुहखरिए. उन्हुकर याददाश्त गजबे रहे. हम पहिला हाली उन्हुके सिरीमुख से सुनले रहीं कि ‘समय के रथ का घर्रघर्र नाद सुनो. सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है.’ ऊ दिनकर के ‘रश्मिरथी’ ,’परशुराम की प्रतीक्षा’आ गुप्त जी के ‘पंचवटी’,’भारत -भारती’ ,’यशोधरा ‘ ,’जयद्रथ वध’ के क क गो अंस ज़ुबानी सुनावसु त हमरा रोमांच महसूस होत रहे. अबे हाले में किछु साल पहिले ऊ सरगबासी हो गइलन. ऊ हमरा बाबूजी के बचपन के संघतियाँ रहलन. ऊ बखत से पहिले चलि बसलन, कैंसर हो गइल रहे. भोला तिवारी आपन परिवार में सबसे बड़ भाई रहलन. ऊ मैटरिक पास क के मेरिट प पोस्ट ऑफिस में नोकरी पा गइल रहन. अगर उन्हुका आगे पढ़े के मोका मिलल रहीत त हिन्दी के प्रोफेसर बन सकत रहन!

ई गाइ ना ह देबी ह, दूनो बेरा पूजाले

कउड़ा हमनी के अड्डा रहे, पाठशाला रहे. ओहिजा कबो बइठे के जगह ना मिले त हमनी के ठाढ़ रहत रहीं जा. किछु फरके से कउड़ा के आँच से दना जात रहीं जा. कउड़ा त हमनी के तिलवा आ मेंथी खात पहुँचत रहीं जा. पहिले बीतत अगहन आ सुरू पूस में तिलवा आ मेंथी बन्हाए लागत रहे. ई सब जाड़ा के बेंजन रहे, भोजपुरिया समाज के. सुराज तिवारी केतने कबिता लिखले रहलन जनेरा के खेत के मचान प आ ओकरा के सुनवले रहलन कउड़ा त. ऊ अपना बाबूजी के हटते कबिता सुनावसु –” ई गाइ ना ह देबी ह, दूनो बेरा पूजाले.” ‘पूजाले’ एहिजा बाच्यार्थ में ना व्यंग्यार्थ में परयोग भइल रहे. ‘पूजाले’ माने पीटाले. ई कबिता ऊ आपन एगो गाइ प लिखले रहन जेवन कमज़ोर आ बूढ़ रहे ; अनेरिया छोड़े जोग ; बाक़ी बिसूखला के बादो जब गाभिन ना होत रहे तबो दुवार से भगावल ना जात रहे. पहिले हमरा गाँव में सात -आठ बियान के बाद जेवन गाइ बूढ़ आ कमज़ोर हो जात रही स ओकरो के लोग खूँटा प बान्ह के खियावत-पियावत रहे. केहू -केहू खूँटा प से खोल देत रहे त ओकरा के अनेरिया कहल जात रहे. जे अनेरिया छोड़त रहे ओकर बहुते निंदा होत रहे समाज में. हमरा गाँव में क क बेर कउड़ा के लगे बड़ -बड़ मामला के निपटारा होखे पंचायत से. ई सब देखले -सुनले बानी जा. किछु लोग हमनी के कउड़ा किहे से भगावे के होखे त हमनी से ओनइस के पहाड़ा आ अँग्रेज़ी के सबदन के मीनिंग पूछे लागत रहे.
जे ई सब पूछे ओकरा के पीठ पीछे बहुते बाउर आ जबुन गारी दियात रहे.

ऊ साँच पूछल जाय त कउड़ा आ आगि के रसिया रहलन

रामउदार तिवारी के कउड़ा लगावे के तरीका बहुते उमदा रहे. ऊ जाड़ा के दुपहरिया में आम के बगइचा में से सूखल पतई आ किछु लकड़ी ले आवसु, साथ में भेड़िन के लेंड़ी. पूस के कँपकँपी वाला जाड़ में गाँव के गड़ेरिया लोग आपन भेड़िन के केवनो खलिहर आ पलिहर खेत में आसमान के नीचे ना, आम आ महुआ के घन बगइचा में हिरावत रहे. गाँव में एक घर गड़ेरिया परिवार रहे जेवन अब कहीं बाहर जा के बस गइल बा. ओह लोग से लेंड़ी मिल जात रहे. ऊ कउड़ा जरावसु साँझ में आ ऊ जरे भोर में दिन चढ़ला तक. कउड़ा के रोज़ -रोज़ जेवन राख होखे ओकरा से ऊ आपन दुवार के आगे के गड़हा भरत रहन. राम उदार तिवारी के ज़रूरत रहे कउड़ा त मनसायन के एगो बड़हन अड्डो रहे. ऊ कउड़ा के बिना जाड़ काटे के ना सोच सकत रहन. उन्हुका के अगर ‘नौ मन रूई के रजाई ‘ बनवा के दे द तबो, ऊ ओह में जाड़ ना काट सकत रहलन. ऊ साँच पूछल जाय त कउड़ा आ आगि के रसिया रहलन. ऊ कउड़ा के पास एतना बइठसु कि उन्हुका दूनो गोड़ के ठेहुना के नीचे के आगे के बार जरि जात रहन स. चेहरा साँवर से करिया हो जात रहे. ऊ ‘संसकिरत’ के कबीर लेखा ‘कूप जल’ समझि के भले ना पढ़ले होखसु; बाक़ी ई जानत रहलन कि आगि जाड़ में अमरित से इचिको कम ना होखे –“अमृतं शिशिरे वह्नि.” एह से अमरित मान के कउड़ा के संगत ना छोड़त रहलन.

(महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि और लिट्टी -चोखा के लिए मशहूर पंचकोसवा की धरती बक्सर के मूल निवासी हैं लेखक, संप्रति यूपी के बलरामपुर में एमएलकेपीजी कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष / एसोसिएट प्रोफेसर हैं और लखनऊ में रहते हैं, प्रस्तुत टिप्पणी उनके फेसबुक कोठार से साभार).

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