भावनात्मक मुद्दों से देश नहीं बनाए जा सकते : यशवंत सिंह

जम्मू कश्मीर’ हमारा था, हमारा रहेगा, यह निर्विवाद सत्य है. एक अस्थायी धारा जिससे तार्किक रूप से मैं खुद को भी पूरी तरह सहमत नहीं कर पाता, पता नहीं किन परिस्थितियों में एक विशेष सुविधा प्रदान करने वाली व्यवस्था के रूप में इससे जोड़ी गयी थी. इसके समर्थन और विरोध में बहुत सारे तर्क हो सकते हैं. पर इतना तय है कि वह हमारा था, हमारा है, हमारा रहेगा और यह सुविधा हमारी ही दी हुई थी.
आज जिस तरह से इसे पेश किया जा रहा है, हमें लगता है जैसे किसी दूसरे देश के भूभाग को जीत कर हमने कोई नया पराक्रम कर डाला हो. बेशक यह बड़ा निर्णय है. संभव है किसी दूसरे देश की परेशानी भी बढ़ी हो, संभव है इस सरकार की इच्छा शक्ति भी दूसरों से भिन्न हो, पर महज इसी कारण से हम खुद को राष्ट्र के एक मात्र शुभचिंतक और दूसरे को राष्ट्र का अहित चिंतक तो नहीं कह सकते.
अगर मेरी जानकारी गलत नहीं है, तो पीओके पर इस सरकार से बहुत पहले की किसी सरकार ने भी संसद में प्रस्ताव पारित किया था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. साथ ही, यह भी सच है कि परिस्थितियों को देखते हुए उसे भारत में मिलाने की दिशा में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी.
आज अगर कर सकते हों तो ठोस कार्रवाई का वक्त है. सिर्फ शोर करके दूसरे मुद्दों की तरह इसको भी चुनाव जिताऊ और दूरगामी रूप से लाभकारी मुद्दा बनाने से दल का भले भला हो, देश का उतना नहीं होने वाला.
तनाव और अविश्वास देश की तरक्की की राह में कुछ रोडा ही अटका सकते हैं, लाभकारी नहीं हो सकते. वह सरकार जो निरन्तर तेज विकास की बातें कर रही हो, उसे विकास के लगातार गिरते हुए आंकड़ों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा.
भावनात्मक मुद्दों के सहारे देश को आन्दोलित कर सरकारें बनाई या गिराई जा सकती हैं, देश नहीं बनाए जा सकते.

(कोलकाता में शिक्षक रहे चकिया गांव के यशवंत सिंह के कई लेख जनसत्ता, तीसरी दुनिया और सन्मार्ग में प्रकाशित हुए.)

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