गड़वार के युवा कवि अदनान कफील दरवेश को ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार

बलिया। गड़वार निवासी जामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी साहित्य में परास्नातक के छात्र युवा कवि अदनान कफील दरवेश को उनकी कविता ‘किबला’ के लिए इस वर्ष के ‘भारत भूषण अग्रवाल’ पुरस्कार के लिए चुना गया है. साहित्य जगत में बलिया के लाल के चयन से हर क्षेत्र में खुशी है, परिवार में खुशी है. सभी एक दूसरे को मिठाइयां खिलाकर खुशी प्रकट किए. उनके पिता डॉ. एहतशाम जाफर जावेद व दादा सिराजुद्दीन साहब ने बताया कि उसे बचपन से ही साहित्य में रुचि रही. देवस्थली विद्यापीठ से हाईस्कूल व इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात दिल्ली विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में स्नातक की डिग्री हासिल किया.
तीन भाइयों में सबसे छोटे है अदनान. एक भाई दुबई में रहते है तथा दूसरा बैंगलोर में सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है, बहन अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रही है. इसके पूर्व भी अदनान को ‘डॉ रविशंकर उपाध्याय युवा कवि सम्मान’ मिल चुका है. यह कविता धर्म में स्त्री के योगदान व उपेक्षा को रेखांकित करती है. प्रसिद्ध लेखक अरुण कमल, अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, पुरुषोत्तम अग्रवाल व अनामिका की जूरी प्रत्येक वर्ष एक सर्वश्रेष्ठ कविता को यह पुरस्कार देती है.

कवि परिचय

नाम: अदनान कफ़ील ‘दरवेश’
जन्म: 30 जुलाई 1994
जन्म स्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय

प्रकाशन: हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर प्रकाशित

पढिए निर्णायक पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य

अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेए “माँ और उसके जैसी तमाम औरतों” के जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है. अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानि संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं.

‘क़िबला’ इसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है, लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है. स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान की पूरी पहचान होने की मंजिल अभी बहुत बहुत दूर है—आस्थातंत्र के साथ ही सामाजिक संरचना की इस समस्या पर भी कविता की निगाह बनी हुई है. अदनान की यह कविता सभ्यता, संस्कृति और धर्म में स्त्री के योगदान को, इसकी उपेक्षा को पुरजोर ढंग से रेखांकित करती है. उनकी अन्य कविताओं में भी आस-पास के जीवन, रोजमर्रा के अनुभवों को प्रभावी शब्द-संयोजन में ढालने की सामर्थ्य दिखती है. मैं ‘क़िबला’ कविता के लिए अदनान क़फ़ील दरवेश को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार देने की संस्तुति करता हूँ.

 

क़िबला/ अदनान कफ़ील दरवेश

माँ कभी मस्जिद नहीं गई
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ
क्यूंकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें मांगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं
लेकिन माँ कभी नहीं गई
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक
उस अँधेरे-करियाये रसोईघर में काम करते हुए
सब कुछ करीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती.

रोज़ धुएँ के बीच अँगीठी-सी दिन-रात जलती थी माँ
जिसपर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ
अख़बार और छुट्टियाँ बिलकुल नहीं थे
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुश्बू लगभग नदारद थे
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता.
ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती
और गीत गुनगुनाती-
“..लेले अईहS बालम बजरिया से चुनरी”
और हम, “कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं…” रटते रहते
और माँ डिब्बे टटोलती
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती.

एक दिन चावल बीनते-बीनते माँ की आँखें पथरा गयीं
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने.

माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ?
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ?
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में ?
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है ?
मेरी माँ के खोये स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे ?

माँ यूँ तो कभी मक्का नहीं गई
वो जाना चाहती थी भी या नहीं
ये कभी मैं पूछ नहीं सका
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं
रसोईघर में था…

[वागर्थ, मासिक पत्रिका, अंक 266, सितंबर 2017]

This post is sponsored by ‘Mem-Saab & Zindagi LIVE’