


ई. एसडी ओझा
बलिया में हाथी के कान जैसा पूड़ी
बलिया हाथी के कान जैसा पूड़ी बनाने के लिए मशहूर है. एक पूड़ी में हम जैसों का पेट भर जाता है. ज्यादा खाने वाले दो या ढाई भी खा जाते हैं. इसका स्वाद बुनिया और दही के साथ और भी लाजवाब हो जाता है. पूड़ी के साथ कुम्हणे की सब्जी हो तो फिर क्या कहने !
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पहले यह बर्रे या तीसी ( अल्सी ) के तेल में पकाया जाता था. तीसी का तेल थोड़ा कड़वा होता है, पर इसमें ओमेगा -3 होने के कारण यह स्वास्थ्य वर्द्धक होता है. धनाड्य परिवार इस पूड़ी को शुद्ध घी में तलते थे, जब से डालडा का आगमन हुआ, सभी घरों में यह पूड़ी डालडा में बनायी जाने लगी थी. अब जब से रिफाइण्ड का चलन बढ़ा है तो रिफाइण्ड ही हर घर में इस्तेमाल होने लगा है.
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बलिया की बड़की पूड़ी शानदार होती है. इसकी खासियत है कि यह कई दिनों तक खराब नहीं होती. गजब की मुलायम होती है. पहले की अपेक्षा इसका आकार अब छोटा हो चुका है. हमारे समय की पूड़ी इतनी बड़ी होती थी कि इसे बांह के दोनों तरफ लटका कर परोसने वाले परोसते थे. यह पूड़ी पहले मोटी होती थी, पर अब पतली भी बनने लगी है. इसे भी पढ़ें – जब विनय तिवारी व अवध विहारी चौबे की जोड़ी दिखी तो मन टेहूं टेहूं चिल्ला उठा

पतली पूड़ी कुछ कुछ पारदर्शी भी होती है, पतली पूड़ी का कान्सेप्ट यह होगा कि संख्या में तो पूड़ी एक हो, पर उसमें सामान कम लगे. खाने वाले को भी लगे कि एक बड़ी पूड़ी खा ली. बस अब और नहीं. इस पूड़ी की खासियत जानकर अब बिहार के सीमांत जिलों (आरा, बक्सर, छपरा और सीवान) में इस पूड़ी की मांग बढ़ी है. इन जिलों में बलिया से कारीगर बुलाए जाने लगे हैं. इसे भी पढ़ें – व्हाट्स ऐप पर घूंघट जो दिखा सरकते हुए, गांव से होकर हवाएं भी पहुंची महकते हुए
इस तरह की बड़ी पूड़ी को पहले लिचुई कहा जाता था. आज भी एक कहावत में लिचुई का इस्तेमाल देखा जा सकता है. ब्राह्मणों पर तंज कसता हुआ यह कहावत यूं है –
दही चिऊरा बारह कोस ,
लिचुई अठारह कोस.
अर्थात् दही चिड़वा के लिए ब्राह्मण बारह कोस और लिचुई के लिए अठारह कोस तक का सफर कर सकता है. This king size puri is part and parcel of Ballia. In local areas, it is called ‘Luchui’ and prepared in every celebration. (लेखक के फेसबुक वाल से)