गंगा की बाढ़ व कटान से सुरक्षा को लेकर नहीं हुआ पुख्ता इंतजाम
बैरिया (बलिया) से वीरेंद्र नाथ मिश्र
“यहां के लोग दुआओं में मौत मांगते हैं. जो जी रहे हैं तो बस यह हुनर उन्हीं का है. ” किसी कवि की ये पक्तियां गंगा व घाघरा के दोआब में बसे लोगों पर सटीक बैठती है. यहां के लोग अगर अपना जीवन यापन कर रहे हैं और कभी खुशहाली महसूस कर लेते हैं, तो इसमें बस यहां के लोगों का ही हुनर काबिले तारीफ है. अन्यथा सरकार व जनप्रतिनिधियों तथा ठेकेदारों ने इन्हें अपने कार्यकलापों से मायूस ही किया है. और एक तरह से यहां के भोली मानसिकता वाले लोगों को जबरदस्ती गुदगुदा कर हंसने को मजबूर करने व खुशहाल होने की अपनी बात उनके मुंह से उगलवाने की चेष्टा ही की है.
यहां हम बात कर रहे हैं गंगा के बाढ़ व कटान से द्वाबा की बर्बादी का, 48 वर्षों में यहां गंगा के बाढ़ व कटान से बचाव के लिए अरबों-खरबों रुपये खर्च हुआ. साल-दर-साल बचाव के लिए यहां नए- नए प्रयोग होते रहे. इन प्रयोगों के दौर में भी खेत, गांव, बाग-बगीचे, मकान, रास्ते आदि कटते ही रहे. लोग बेघर हो कर सड़कों पर आते रहे, समस्या जस की तस बनी हुई है.
आश्चर्य में डूबे गंगा तटवासी व द्वाबा का जागरूक तबका कहता है कि इतना खर्च के बाद तो पूरे बलिया जनपद में गंगा के तट पर पश्चिम से पूरब तक पक्के सीमेन्टेड बांध बन गए होते. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. वहीं खुद ही यह भी कहते हैं कि अगर ऐसा हो ही जाता तो फिर न जाने कितने जनप्रतिनिधि, नौकरशाह व ठेकेदार मालामाल कैसे होते. अजीब विडंबना है कि जब कोई जनप्रतिनिधि और नौकरशाह कहता है कि अमुक काम के लिए दो करोड़ रुपये स्वीकृत हुआ है. तो सुनने वाले अधिकांश लोग यह हिसाब लगा लेते हैं कि इसमें से इस जनप्रतिनिधि का, इस नौकरशाह का और इस ठेकेदार का कितना हिस्सा बना होगा.
लोगों ने यही देखा है कि भौतिक स्तर पर कम तथा कागज पर ज्यादा काम दिखाने की यहां परंपरा से बन चुकी है. आम जनता के बीच बैठ चुकी इस तरह की धारणा के जिम्मेदार व जवाब देह कौन है ? यह जनता के बीच खुला हुआ है. लेकिन मंच और सार्वजनिक स्थलों के लिए यक्ष प्रश्न बना है.
बताते चलें कि गंगा में बाढ़ आना तो यहां के लिए सतत प्रक्रिया रही है. जबकि आजादी के बाद गंगा की लहरें पहली मर्तबा द्वाबा में 1968 ई में गाय घाट के पास बेकाबू हुई थी. तब यहां पर बल्ली बांस के सहारे बाढ़ व कटान रोकने का प्रयोग किया गया था. ऐसा तटवर्ती बुजुर्ग अपनी याददाश्त के सहारे बताते हैं. उसके बाद फिर 1977 में उसी जगह पर जब गंगा ने अपना रुप उग्र किया तो लोहे के तारों के जाल में झौंवा डालकर तथा बंधे के किनारे ढाई फीट की ऊंचाई की दीवार खड़ी की गई.
परिणाम रहा कि वह इलाका सुरक्षित हुआ. गंगा और आगे बढ़कर कटान करने लगी. वर्ष 1975 से 2013 तक मझौवां से गंगापुर तक पत्थर के बोल्डर वाले 23 स्पर बनाए गए. उनकी गुणवत्ता का यही उदाहरण काफी है कि इस बीच के दौर में पचरुखिया, नारायणपुर, मीनापुर, दुर्जनपुर, हुकुमछपरा, तेलियाटोक, गंगापुर, शाहपुर, गंगौली, रिकिनीछपरा सहित दो दर्जन गांव का अस्तित्व ही समाप्त हो गया. सैकड़ों हेक्टेयर उपजाऊ जमीन, विद्यालय, मंदिर, उपासना स्थल आदि महत्वपूर्ण स्थान गंगा के लहरों में विलीन हो गए. हजारों परिवार बेघर हुए और सैकड़ों परिवार सड़क पर आकर शरणार्थी सा जीवन बिताने को मजबूर हैं. इनके विस्थापन की समस्या हल नहीं हो पाती, तब तक फिर और लोग उन्हीं की तरह बेघर हो कर हर साल बढ़ते ही जाते हैं.
2013 से यहां जियो बैग से प्लेटफार्म बनाकर कटान रोकने की प्रक्रिया चल रही है. यह कुछ कारगर जरूर है. लेकिन पीड़ित लोगों को संतुष्ट करने का सामर्थ्य नहीं रखता.
इस साल यह गांव होंगे निशाने पर
गंगा तटवर्ती गांव के पुरनिया इस साल के मौसम का लक्षण देखते हुए गंगा में उफान आने तथा बाढ़ व कटान का अनुमान लगा रहे हैं. अगर ऐसा हुआ तो इस साल गोपालपुर, दुबेछपरा, उदईछपरा, केहरपुर, सूघरछपरा तथा अवशेष बस्ती लाल बगीचा टोला, सोनार टोला, गंगापुर, हुकुम छपरा आदि गांव गंगा के लहरों के निशाने पर होंगे. यहां दुबेछपरा में 29 करोड़ की लागत से बाढ़ व कटान रोधी कार्य चल रहा है. लेकिन यह कार्य विलंब से शुरू हुआ और मंथर गति से करने के चलते पिछली साल की तरह साबित होने का बात ग्रामीण कर रहे हैं. पिछले साल भी 11 करोड़ की लागत से यहीं पर काम शुरू किया गया था. जिसका कोई भी लाभ तटवर्ती गांव के लोगों को नहीं मिल सका.
उधर पूरब में जगदीशपुर, नरदरा, बिंद के डेरा, सिमरिया डेरा आदि लगभग 40 हजार की आबादी भी गंगा के निशाने पर होगी. इस इलाके के लिए सरकार के पास कोई कार्य योजना नहीं है. इस क्षेत्र के दौरे के समय ग्रामीणों के पूछने पर जिलाधिकारी ने बताया था कि आपदा के समय बचाव कार्य किया जाएगा. यहाँ के लिये पहले से इंतजामात के लिये धन स्वीकृत नहीं है.