विजय शंकर पांडेय
आपको मेट्रो और आम ट्रेनों के पैसेंजर के बर्ताव में कोई फर्क नजर आता है… जब भारत में पहली बार कलकत्ता में मेट्रो ट्रेन सेवा शुरू की गई थी तो साऊथ और नॉर्थ कलकत्ता में साफ तुलनात्मक फर्क नजर आता था…. उसकी वजह काफी हद तक उन इलाकों की बसावट भी थी…. क्या आपने कभी सुना है कि फलां मेट्रो पैसेंजर को फांसी हुई इसके बाद लोग कांशस हो गए…. नहीं न… जाहिर सी बात है आम ट्रेनों की ही भांति मेट्रो के यात्री भी इसी देश के नागरिक हैं…. कुछेक अपवादों को नजर अंदाज कर दें तो मोटे तौर पर मेट्रो प्रबंधन की कम्युनिकेशन स्किल सामान्य ट्रेन प्रबंधन के मुकाबले अपेक्षाकृत बेहतर और पैसेंजर फ्रेंडली नजर आता है… मेट्रो की एक खासियत और है… इसमें प्रधानमंत्री या कैबिनेट मंत्री या फिर कोई खोमचा वाला सभी एक ही क्लास में समान रूप से सफर करते नजर आते है… जबकि आम ट्रेनों में कई क्लास होते हैं…. या प्रकारांतर में आप कह सकते हैं कि भारतीय ट्रेनों में हमारी सामाजिक व्यवस्था या वर्ग विभाजन का भी अक्स साफ दिखता है….
मैंने स्कूटर-बाइक चलाना हावड़ा में ही सीखा… लाइसेंस भी वहीं बना… आज से तीन दशक पहले भी कलकत्ता महानगर में दाखिल होने से पहले लोग हैलमेट स्वतः पहन लेते थे, भले हावड़ा में कोताही कर जाएं… कृपया आज के हावड़ा से इसकी तुलना न करें…. बहुत कुछ बदल चुका है…. उस वक्त भी दिल्ली में कमोबेश कलकत्ता सरीखे ही हालात थे… लगभग ढाई दशक पहले दिल्ली के जनसत्ता अखबार की कुछ ज्यादा ही हनक थी…. इस अखबार से जुड़े एक अग्रज पत्रकार देर रात अपना एडिशन छोड़ने के बाद मुझे अपनी बाइक पर बैठा कर दफ्तर से अपने घर के लिए चले… पिलियन राइडर अर्थात मैं बगैर हैलमेट के था… कारण, मैं उनसे अचानक मिलने पहुंच गया था… और उनके पास दूसरा हैलमेट नहीं था… लाचारी भी थी…. खैर इतने बड़े अखबार से जुड़े होने के बावजूद वे मानसिक तौर पर इस बात के लिए तैयार थे कि नौबत आएगी तो जुर्माना अदा किया जाएगा… कोई हुज्जत नहीं करेंगे… हालांकि ऐसी नौबत आई नहीं…. शायद यूपी या बिहार होता तो परिदृश्य अलग होता….
कानून के राज में विशेष तौर पर लोकतंत्र में दंडाधिकार उसी के पास होना चाहिए…. जो पहले व्यक्ति को शिक्षित करे…. सिर्फ साक्षर नहीं…. ऐसा इसलिए भी लिख रहा हूं कि हाल ही में एक महिला सांसद ने कुछ उटपटांग आपत्तिजनक बयान दिया… संसद में उनके बचाव करने वाले सांसदों-मंत्रियों ने उनके बैक ग्राउंड और शिक्षा दीक्षा को ढाल बना कहा कि इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए… कम से कम उनके लिए यह सब क्षम्य है….. फिर आम नागरिकों के लिए शिक्षा या बैकग्राउंड मायने क्यों नहीं रखता….. जेल की भी परिकल्पना सुधार गृह के तौर पर की गई थी…. न कि क्राइम यूनिवर्सिटी या यातना गृह के तौर पर…
पॉकेटमारी की सजा फांसी तो नहीं हो सकती…. सारा दोष गाड़ी चलाने वाले के मत्थे ही नहीं मढ़ सकते….. सड़कों की खस्ताहालत भी कुछ कहती है… सख्त सजा अगर किसी मर्ज की दवा है तो इस देश में कत्ल और रेप तो कत्तई नहीं होने चाहिए थे…. दरोगई अगर कोई सॉल्यूशन है तो आईपीएस की नियुक्ति और उस पर पैसा जाया करने का औचित्य क्या है….. इस देश में पॉलिटिकल कल्चर बहुत मायने रखता है…. विशेष तौर पर यूपी-बिहार में…. क्या बात-बात पर कानून तोड़ना…. सामने वाले की वर्दी उतरवाने की धमकी देना…. स्टेट्स सिंबल नहीं है…. सांसद या विधायक जूता चला दे या थप्पड़ जड़ दे तो उसका ब्रांड वैल्यू बढ़ जाता है… बाहुबलियों के लिए पलक पावड़े बिछाना क्या है….. कौन सी ऐसी पार्टी है जो इससे परहेज करती है…. फिर आप कानून का सम्मान करने का कौन सा नजीर पेश कर रहे हैं…. हमारे मुल्क में राजनेता और आईएएस कर्णधार हैं…. वे बताएंगे कि उन्होंने इस देश की जनता को सुशिक्षित करने के लिए कौन कौन से कारगर कदम उठाएं हैं…. अगर दिल्ली और कलकत्ता सरीखे बड़े शहरों में ट्रैफिक रूल मानने वालों की तादाद ठीक ठाक है तो इसका विस्तार पूरे देश में क्यों नहीं हो पा रहा है….
शिक्षा और स्वास्थ्य मनुष्य की बुनियादी जरूरतें हैं…. सभी को समान रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य की सहूलियतें मिलती हैं क्या… ऐसे में असमान व्यवस्था वैसे ही नागरिकों का निर्माण भी तो करेगी… ट्रैफिक रूल की तरह क्यों न शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भी समान रूप से सख्ती बरती जाए…. राष्ट्रपति हो या डीएम…. या फिर कोई भी आम आदमी…. सभी के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे…. सभी का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही होगा…. जिस दिन यह व्यवस्था लागू हो जाएगी… वीवीआईपी एलिमेंट की वहां मौजूदगी ही क्वालिटी इंप्रूवमेंट का कारक ग्रह साबित होगी… जब अपने बच्चों का भविष्य दाव पर होगा तब शासन से लेकर प्रशासन तक को शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर सही मायने में चिंता सताएगी…. मगर ऐसा संभव नहीं है…. कारण, इस मुल्क के अधिकतर निजी शिक्षण संस्थान और अस्पताल प्रभावशाली धनाढ्य लोगों के हैं…. और वे कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी दुकान बंद हो….. शायद यही कारण है कि सरकारी व्यवस्था की मिट्टी पलीत हो रही है….
मैकाले अलग अलग अवतार में कब तक गुल खिलाएगा…. पाषाण काल में ही मनुष्य जाति इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि डर के आगे ही जीत है….. चंद्रयान-2 की 95 फीसदी कामयाबी हमें और अधिक तैयारी के साथ चांद को जीतने के लिए कुछ कर गुजरने को उकसाती है…. इसलिए किसी को इतना भी मत डराइए कि….. आपके नमक रोटी के भी एहसान से वह उऋण होने को बेताब हो जाए…. वैसे भी यह देश आज भी जुगाड़ से चलता है… बाकी तो जो है हईए है…..