जेपी के गांव से लवकुश सिंह
आज संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रणेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पुण्य तिथि है. हम एक दिन पूर्व जेपी के पैतृक गांव सिताबदियारा में थे. आज हम बिहार सीमा के अंदर सिताबदियारा के चैन छपरा में स्थित जेपी के उस क्रांति मैदान में भी पहुंचे, जहां 1974 में ही लगभग 10 हजार लोगों ने जेपी के सांथ मिलकर जनेऊ तोड़ो आंदोलन का शंखनाद किया था. तब सभी ने अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प भी लिया था कि हम अब जाति प्रथा नहीं मानेंगे. उस आंदोलन का साक्षी वह पीपल का वृक्ष अब बुढा चला है, किंतु उन दिनों की यादों को अपने अंदर समेंटे अब भी खड़ा है.
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सिताबदियारा में जेपी की चर्चा करने पर यहां बहुत से लोग हैं, जो जेपी के बाद की व्यवस्था से बेतहाशा दुखी हैं. लोगों का यह मानना है कि जेपी ही एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने आजादी का जंग तो लड़ा ही, जब अपना देश आजाद हो गया, तब भी उस महानायक को चैन नहीं मिल सका. आजादी के जंग में इस महानायक के कारनामों से कभी मुंबई के अखबारों में छपा कांग्रेस ब्रेन अरेस्टेड, तो कभी हजारीबाग जेल से धोती की ही रस्सी बना भागने का शोर भी देश और विदेशों में हुआ. तब के समय में जेपी की वीरता पर ही दिनकर ने लिखा – है जयप्रकाश जो कि, पंगु का चरण, मूक की भाषा है, है जयप्रकाश वह टिकी हुई जिस पर स्वदेश की आशा है. है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादर देता है, बढकर जिसके पदचिन्हों को उर पर अंकित कर देता है. कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है, ज्वाला को बुझते देख, कुंड में कूद स्वयं जो पड़ता है.
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हम आजादी के पहले के जेपी की चर्चा छोड़, बात आजादी के बाद की ही करें, तो वह अकेले ऐसे इंसान थे जिन्हें आजादी के बाद की व्यवस्था से बेतहाशा दुख पहुंचा था. इस महानायक के संबंध में पूछने पर सिताबदियारा के ही निवासी चैन छपरा निवासी लल्लू सिंह, शिवजी यादव, बद्री विशाल पांडेय, रामेश्वर टोला निवासी ताड़केश्वर सिंह, लाला टोला
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प्रभुनाथ सिंह, आदि बुर्जुग बताते हैं कि आजादी के बाद जेपी के महत्वपूर्ण आंदोलनों में संपूर्ण क्रांति सबसे अहम थी, किंतु दुखद यह कि वर्ष 1974 में जेपी जो बारात लेकर सड़कों पर निकले, उसमें से अधिकांश बारातियों के समझ से परे थी संपूर्ण क्रांति. तब की बातों को आगे बढाने पर ये दोनों बुजुर्ग अपने 70-75 वर्ष की अवस्था में भी दम भरना शुरू कर देते हैं. बताते हैं कि जेपी सेवा के माध्यम से समाज में बुनियादी बदलाव लाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने अनेक प्रयोग किया.
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1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, चंबल के बागियों के बीच सत्य अहिंसा का अलख, भूदान, ग्राम दान, जनेऊ तोड़ो आंदोलन, उनके सक्रिय जिंदगी के महत्वपूर्ण बिन्दू रहे. 1974 का संपूर्ण क्रांति आंदोलन उनके प्रयोगों की आखरी कड़ी बनी. तब अपने ही देश में जनतंत्र की लाश पर पनप रही तानाशाही के विरूद्ध इस 75 वर्षीय बुजुर्ग को मैदान संभालना पड़ा. उनके सार्थक प्रयोगों से ही 1977 में सत्ता परिवर्तन भी हुआ. कहने मात्र की उनके मर्जी की सरकार बनी. इस अवधि में जेपी इंतजार करते रहे कि उनके अनुयायी संपूर्ण क्रांति के सपनों को साकार करेंगे, किंतु नए शासकों ने उनकी जिंदगी में ही वही खेल शुरू कर दिया, जिसके विरूद्ध 1974 में आंदोलन चला था. अब तो जेपी कुछ करने की भी स्थिति में नहीं थे. वे पूरी तरह टूट चुके थे. देश और समाज की बेहतरी का अरमान लिए जेपी 08 अक्टूबर 1979 को आज ही के दिन इस लोक से ही विदा हो गए.
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उक्त बुजुर्गों ने समाज के वर्तमान हालात को देखकर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि हमें अभी भी लगता है, मानों जेपी आज भी अपनी चिता से उठकर पूछ रहे हैं वही सवाल, मेरे देखे उन सपनों का, अब कैसा है हाल. इसका जबाब है अभी के समय में किसी के पास नहीं है. अब देश में सब कुछ जेपी की सोच के विपरीत ही चल रहा है.
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