लवकुश सिंह
उत्तर प्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जीत के मायने किसी एक प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने तक सीमित नहीं हैं. सभी प्रमुख पार्टियों को इसका बखूबी एहसास है कि यह चुनाव जहां राज्यसभा में उसकी ताकत में इजाफा करेगा, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी बड़ा आधार तैयार करेगा. ऐसे में सभी दलों ने चुनावी मैदान अब सजा लिए हैं. एक बार फिर विकास का मुद्दा गुम होते दिख रहा है और उसके स्थान पर जाति-धर्म हावी हैं.
अब तक के राजनीतिक तैयारियों पर गौर करें तो, एक तरह से इस चुनाव का बिगुल एक साल पहले से ही बज चुका है. पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने यूपी के बलिया में गरीब महिलाओं को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन देने की ‘उज्ज्वला’ नामक महत्वाकांक्षी योजना लॉन्च की और अपनी सरकार के दो साल पूरे होने के जश्न की शुरुआत भी यूपी में ही रैली करके की. इसमें कई लोकलुभावन घोषणाओं के साथ, उन्होंने भाजपा सांसदों से कहा था कि वे सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के अभियान में जुट जाएं, उनकी इन कवायद को प्रदेश में सत्तारूढ़ सपा की उन साइकिल यात्राओं का जवाब माना गया, जो उसने अखिलेश सरकार के चार चाल पूरे होने के बाद अच्छे कामों को जनता तक ले जाने के लिए शुरू की थीं. जब भाजपाई और सपाई गांवों व गलियों की खाक छानते पसीना बहा रहे थे, तब बसपा व कांग्रेस यह कह कर उन पर बरस रही थीं कि उपलब्धियों के प्रचार में समय जाया करने से बेहतर होता कि वे सूखे और अग्निकांडों से पीड़ित प्रदेशवासियों, खासकर भूखे–प्यासों की मदद करते.
इसके बाद गाजीपुर की सभा में भी मोदी ने अपना अलग छाप छोड़ा. नोटबंदी से लेकर देश की सुरक्षा और आर्थिक दशा का विस्तृत व्याख्यान कर उन्होंने सबका दिल जीत लिया. इन सब के बावजूद यूपी की राजनीति जातीय व्यतवस्था के इर्द-गिर्द घूम रही है. शायद इसीलिए सारी पार्टियां तेजी से जातीय-धार्मिक समीकरणों को साधने में व्यस्त हैं. टिकट का बंटवारा भी इसी हिसाब से किया जा रहा है. सभी पार्टियां उपयोगी चेहरे जुटाने में लगी है. उससे लगभग तय हो चुका है कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री की प्रदेशवासियों की खैरख्वाही और उनके लिए खजाना खोल देने के बावजूद यह विधान सभा चुनाव भी मुख्य रूप से जाति या धर्म के नाम पर ही लड़ा जायेगा. विकास के बोल और टोन तो सभी के रहेंगे किंतु मुख्यतः मुकाबला जाति और धर्म के नाम पर ही होगा.
प्रमुख दलों पर एक नजर
विकास की रथ पर सवार अखिलेश की सपा
चुनाव आयोग का फैसला अखिलेश यादव के पक्ष में आने बाद, सपा एक बार फिर विकास के दावों को लेकर मैदान में है. वहीं दूसरी ओर मुलायम सिंह के परिवार के मतभेद से अभी भी पार्टी के कार्यकर्ता त्रस्त हैं. जिम्मेदार कार्यकताओं की मंशा एक होकर चुनाव लड़ने की थी, किंतु यह अभी तक संभव नहीं हो सका. बात हम सीएम अखिलेश यादव की करें तो पूरे सत्ताकाल में प्रशासनिक सुस्ती को छोड़ दें, तो सीएम अखिलेश यादव के खिलाफ घपले-घोटाले का कोई आरोप नहीं है और उनकी व्यक्तिगत छवि भी बेदाग है, किंतु मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ही बिखरा पार्टी का एमवाई समीकरण दुरुस्त नहीं हो रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेश यादव ने लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे, बलिया लखनऊ एक्सप्रेस वे के साथ लखनऊ में मेट्रो रेल की परियोजना लागू करने से लेकर विकास के कई काम किए हैं, वह उनका चुनावी एजेंडा बन कर उभर रहा है. साथ ही प्रदेश की बिजली व्यवस्था को दुरुस्त करने में भी इस सरकार ने वैसा ही काम किया है, जैसा बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में हुआ था. सपा सरकार ने समाजवादी एंबुलेंस योजना से लेकर समाजवादी पेंशन योजना तक जो कल्याणकारी काम किए हैं, वह भी अपनी भूमिका निभाएंगे. यह भी सत्य है कि अखिलेश की लड़ाई जितनी मायावती की बसपा और मोदी की भाजपा से नहीं है, उससे कहीं ज्यादा अपनी पार्टी के भीतरी समीकरणों से अभी भी है.
बसपा को सोशल इंजीनियरिंग फेल होने का डर
स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी जैसे नेताओं के साथ छोड़ने से पहले प्रेक्षक आश्वस्त थे कि बसपा 2017 में सपा से सत्ता छीन लेगी. अब उनकी राय थोड़ी बदल गयी है. मायावती न तो पार्टी के बिखराव से चिंतित हैं, न दलित वोटों को लेकर. लोकसभा चुनावों का पराजय बोध भी उन्हें बहुत नहीं सताता. उनकी वास्तविक चिंता उस दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग के फेल हो जाने को लेकर है, जिसने 2007 में उन्हें बहुमत दिलाया था. वह जानती हैं कि जब तक दलितों के साथ कोई और जाति बसपा से न जुड़े, वह विजय नहीं पा सकती. इसलिए बसपा का अभी पूरा ध्याकन सोशल इंजीनियरिंग पर है.
जातीय संतुलन साधने के प्रयास में भाजपा
इलाहाबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विकास की गंगा व पर्व की बात करने वाले प्रधानमंत्री ने जातीय संतुलन साधने के लिए मंत्रिमंडल विस्तार में प्रदेश से एक दलित, एक पिछड़ा व एक ब्राह्मण मंत्री बना डाले हैं, जबकि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य भी पिछड़े ही हैं. बेवजह बयानों से समस्याएं खड़ी करने वाले रामशंकर कठेरिया का मंत्री पद छीनने और हिंदू आक्रामकता के लिए जाने जानेवाले योगी आदित्यनाथ को निराश करने के बावजूद,राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बिसाहड़ा व कैराना जैसे सांप्रदायिक मुद्दों से उम्मीदें लगा रखी हैं. विधानसभा उपचुनावों व राज्यसभा के द्धिवार्षिक चुनाव में प्रतिद्धंदियों पर मनोवैज्ञानिक बढ़त के उनके प्रयास विफल रहे हैं, किंतु कई लोग बसपा के बिखराव को भी उन्हीं की सफलता बताते हैं.
लस्त-पस्त हाल में अब भी है कांग्रेस
यूपी में लस्त-पस्त हाल में अभी भी कांग्रेस की स्थिति है. कांग्रेस अब अलग–अलग जातियों व धर्मों के चेहरे आगे कर रही है. ब्राह्मण की बहू शीला दीक्षित सीएम कैंडीडेट, अल्पसंख्यक गुलाम नबी आजाद प्रदेश प्रभारी, सिनेस्टार राजबब्बर प्रदेश अध्यक्ष, ठाकुरों के क्षत्रप संजय सिंह समन्वयक, तो ब्राह्मण प्रमोद तिवारी प्रचार प्रभारी हैं. उम्मीद लगाया जा रहा है कि बेटी प्रियंका आ जाएंगी तो यूपी में डंका बज उठेगा, किंतु अभी यह सब हवा–हवाई ही है. पार्टी संगठन की जमीनी हालत कुछ और ही बयां कर रहे हैं