कब तक हार में भी जीत का आनंद लेंगे, कब समझेंगे

दुष्यंत की एक पंक्ति याद आती है ‘पक्ष और प्रति पक्ष संसद में मुखर है, बात इतनी है कि कोई पुल बना है ‘ आज वह पुल भी नहीं है. आज जन केन्द्रित विमर्श जनता की समस्याओं पर आधारित चुनावी बहस,उसके मुद्दे शिरे से गायब है. आज राष्ट्रवाद सर्जिकल स्ट्राइक राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे शब्द विमर्श के केंद्र में है. मजे की बात है कि हमारे पैरों की जमीन खिसकाए बिना, हमारी बुनियाद को कमजोर किए बिना यह संभव भी नहीं है, और एक बार लोगों को इस नशे की लत लग जाए तो आवश्यकताओं की जमीन पुख्ता किए बगैर ही चुनावी फसलें सर्वदा लहलहाती रहती हैं. बेरोजगारी, किसानों की समस्या, गरीबी, बढ़ती आबादी, प्रदूषण के विविध रूपों आदि के बने रहते भी ये आराम से चुनाव जीतते रहते हैं.
इस बार तो जन समस्याएं बहस के केंद्र में ही नहीं हैं. कभी रहती भी हैं, तो छद्म मुद्दों की ऐसी घुट्टी पिलाई जाती है कि लोग बिना अपनी जमीन की फ़िक्र किए (कई बार उसको खुद बर्बाद कर के भी) एक खास तरह के नशे में झूमने और जय बोलने के अभ्यस्त हो जाते है. शतरंज के खेल में जैसे नकली बादशाह की रक्षा में तलवारें खींच जाती हैं पर असली बादशाह की गिरफ्तारी को देख कर भी अनदेखा किया का सकता है. नकली मुद्दे जितना हमे आंदोलित करते हैं असली नहीं कर पाते. आप को नहीं लगता कि पिछले कई चुनावों से कुछ इसी तरह का खेल आपके साथ खेला जा रहा है. अगर इस बात में तनिक भी सच्चाई प्रतीत हो, तो अब तो सतर्क हो जाएं. कब तक अपने भविष्य को दाव पर लगा कर, लगातार हारते हुए भी, जीत की खुशियां मनाते रहेंगे,नाचते रहेंगे, झूमते रहेंगे. ऐसे तत्वों की जीत कहीं मूलतः हमारी पराजय तो नहीं ?

साभार: कवि व लेखक चकिया(बलिया) निवासी यशवंत सिंह के फेसबुक वाल से

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