जिस तरह चाहो बजाओ यार, हम आदमी नहीं, झुनझुने हैं!

बलिया जिला घर बा त कौने बात के डर बा…. यह डॉयलॉग मैंने पश्चिम बंगाल में बचपन में अपने पड़ोसी बंगालियों की जुबानी सुनी थी… मुझे नहीं पता जिन्होंने बलिया को देखा नहीं, जाना नहीं, जिया नहीं, समझा नहीं…. उनकी यह धारणा कैसे बनी…. अभी दिल्ली के एक प्रतिष्ठित न्यूज पोर्टल पर पढ़ रहा था कि बलिया के लोग सांड़ को भी बैल की तरह नाथ कर खेत जोत लेते हैं…. बलिया के चकिया गांव में जन्मे मूर्धन्य कवि केदार नाथ सिंह लिखते हैं – मगर पानी में घिरे हुए लोग / शिकायत नहीं करते / वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में / कहीं न कहीं बचा रखते हैं / थोड़ी-सी आग….. शायद यही जिजीविषा बलिया वालों की ऐसी छवि गढ़ती होगी. क्योंकि केदार नाथ सिंह कुछ लिखे हैं तो बेशक उसका कोई आधार होगा. वे न सिर्फ बलिया में पैदा हुए थे, बल्कि बाढ़ की दहाड़ के बीच ही पले-बढ़े भी थे.

कई दर्जन गांवों को बाढ़ ने नक्शे से गायब कर दिया

मैं बलिया को बतौर एक पत्रकार ही जानना समझना शुरू किया. साल 2001 में अमर उजाला का वाराणसी से प्रकाशन शुरू हुआ तो मेरा तबादला जालंधर से बनारस कर दिया गया. अब मेरा वास्ता पूर्वांचल की खबरों से लगभग रोज ही पड़ने लगा. बलिया को पहचाना ही जाता है भृगु ऋषि, मंगल पांडेय, चित्तू पांडेय और चंद्रशेखर की धरती के तौर पर. मगर शायद ही किसी अपरिचित या बाहरी को यह एहसास हो कि गंगा और घाघरा के मचलते ही बलिया की एक अच्छी खासी आबादी सिहर उठती है. क्योंकि वह साक्षी रही है कई दर्जन गांवों के देश के नक्शे से नदारद होने के. इन गांवों के समृद्ध लोग तो दूसरा सुरक्षित ठौर तलाश नया जीवन शुरू कर दिए, मगर एक अच्छी खासी दीन हीन निरीह आबादी खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारने को अभिशप्त है.

मौसम विभाग के एलर्ट से नींद हराम

बलिया में उफनती गंगा के प्रचंड वेग को दुबेछपरा रिंग बांध नहीं झेल सका और सोमवार को दोपहर 2 बजे टूट गया. नतीजतन उदई छपरा, गोपालपुर, दूबे छपरा, प्रसाद छपरा, गुदरी सिंह के टोला, बुद्धन चक, मिश्र गिरी के मठिया, टेंगरहीं, चितामण राय के टोला, मिश्र के हाता सहित दर्जन भर गांवों की हजारों की आबादी बांध के टूटने से जलमग्न हो गई है. इसके अलावा पीएन इंटर कालेज, डिग्री कालेज, स्वास्थ्य केंद्र, आयुर्वेदिक अस्पताल सहित सभी जलमग्न हैं. आसपास के गांवों की 35 हजार की आबादी तबाही के आगोश में आ गई. बाढ़ से प्रभावित होने वाले गांवों में कोडरहा नौबरार पंचायत के करीब पच्चीस सौ की आबादी वाला गांव भगवान टोला (टीपुरी), तो वहीं घाघरा नदी के चपेट में आने वाले गांवों में चांददीयर पंचायत के करीब तेरह हजार की आबादी वाले गांवों में चांददीयर बड़ा प्लाट, पलटू नगर, श्रीपालपुर के डेरा, भगवान के डेरा, टोला फतेह राय के, बैजनाथ के डेरा, बकुल्हा, बकुल्हा पूर्वी, मठिया आदि गांव प्रभावित हैं.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक घटना के वक्त जिलाधिकारी भवानी सिंह खंगारौत व एसपी देवेंद्र कुमार बंधे पर ही मौजूद थे. मगर मौके की नजाकत को भांपते हुए वे बाढ़ विभाग के साथ मौके से खिसक लिए. इसके बाद इलाकाई बैरिया विधायक सुरेंद्र नाथ सिंह का बयान आपने बलिया लाइव पर सुना या देखा ही होगा.


मौसम विभाग की मंगलवार की रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 48 घंटों के दौरान राज्य के पूर्वी भागों में ज्यादातर स्थानों पर बारिश होने की संभावना है. यूपी में लगातार बारिश और कानपुर, हरिद्वार के बैराज के अलावा नरौरा डैम से पानी छोड़े जाने के कारण पूर्वांचल में गंगा का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है.

बलिया, गाजीपुर, प्रयागराज के बाद गहरा सकता है वाराणसी में भी संकट

केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट की माने तो यमुना नैनी (प्रयागराज) में खतरे के निशान को पार कर गई है. वहीं, गंगा गाजीपुर और बलिया में लाल चिह्न से ऊपर बह रही है. साथ ही फाफामऊ (प्रयागराज), इलाहाबाद, मिर्जापुर और वाराणसी में इसका जलस्तर खतरे के निशान के नजदीक पहुंच गया है. बढ़ाव इसी गति से जारी रहा तो अगले 24 घंटों में वाराणसी में गंगा पार रामनगर से पड़ाव के बीच बसे गांवों तक बाढ़ का पानी पहुंच जाएगा. मंगलवार की रात 11 बजे वाराणसी में गंगा का जलस्तर 71.16 मीटर तक पहुंच गया है. जो खतरे के निशान 71.26 से मात्र दस सेंटीमीटर दूर है. गंगा में एक सेंटीमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ाव भी जारी है. ऐसे में माना जा रहा है कि बुधवार की सुबह तक गंगा खतरे के निशान को भी पार कर जाएंगी. अगर ऐसा होता है तो गंगा तीन साल बाद खतरे के निशान को पार करेंगी. रिपोर्ट के मुताबिक, घाघरा नदी एल्गिनब्रिज (बाराबंकी) और अयोध्या में खतरे के निशान को पार कर गई है, जबकि तुर्तीपार (बलिया) में यह इस चिह्न के नजदीक बह रही है. वैसे बलिया के गायघाट में गंगा का जलस्तर 58.96 मी. दर्ज किया गया. साथ ही प्रति घंटा आधा सेमी का बढ़ाव बना हुआ है.

क्या लूट की नई नई कहानियां गढ़ जरूरी सवाल दफन कर दिए जाते हैं

बताया जाता है कि दुबेछपरा रिंग बांध को बनाने में जितनी लागत आई थी, उससे डेढ़ या पौने दोगुना उसे बचाने की कवायद में जाया हो चुका है. खुद बैरिया विधायक सुरेंद्र नाथ सिंह का दावा है 29-30 करोड़ रुपये उनकी सरकार ने बांध को बचाने पर खर्च किया, मगर लोगों को प्राकृतिक आपदा से बचाने में विफल रहे. ऐसे में कई सवाल किसी भी संवेदनशील आदमी के दिमाग में कौंध सकते हैं. मसलन पिछले कई दशक से ऐसा होता आ रहा है, फिर भी हम सबक क्यों नहीं सीख रहे है? कोई कारगर योजनाबद्ध पहल क्यों नहीं होती है? साथ ही क्या यह सच है कि बाढ़ उतरने के साथ ही आम आदमी से जुड़े जरूरी सवाल लूट की एक नई कहानी पैदा कर गंगा की कोख में समा जाते हैं?

ताज्जुब होता है कि बाढ़ व कटान रोकने के लिए इस बार तकरीबन 41 करोड़ रुपये खर्च किए गए, फिर भी रिग बंधा बह गया. मिट्टी के ढेर और प्लास्टिक के बैगों से गंगा व घाघरा के तेवर को रोकना वैसा ही है जैसे सूर्य को दीपक दिखाना. आरसीसी ढलाई व पक्की पिचिग से ही रुकेगा तबाही का मंजर. ऐसा लग रहा है कि बाढ़ व कटान कुछ लोगों के लिए पिकनिक का साधन है. हर साल लाखों की आबादी विस्थापित जिदगी गुजारने को मजबूर है. बावजूद इसके अनावश्यक बयानबाजी की जा रही है – राम इकबाल सिंह (पूर्व विधायक), मंगलवार को पत्रकारों से बातचीत में

आपदा प्रबंधन के नाम पर जारी होने वाले पैसे आखिर कहां जाते हैं?

हाल के वर्षों में यह तो साफ हो चुका है कि बाढ़ से पैदा हुई चुनौती से निपटने में सिस्टम बुरी तरह से विफल है. हमारा तंत्र या सिस्टम इतनी अक्ल भी विकसित नहीं कर पाया है कि इतनी बड़ी आबादी को इस प्राकृतिक आपदा से कैसे बचाया जाए. जानकार कहते हैं कि क्या वजह है कि राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे रुद्रपुर से दुबेछपरा तक यू-सेप में बने बालू के टीले को नहीं हटाया जा रहा है? इस काम को करने में करीब पचास से सौ करोड़ रुपये खर्च होंगे. बालू का टीला हट जाने से नदी का प्रवाह सीधा हो जाएगा. राष्ट्रीय राजमार्ग से नदी की धारा सीधे नहीं टकराएगी. गंगा का प्रवाह दक्षिण और पूर्व की तरफ होने से जलपोत परिवहन भी सुगम हो सकता है. यह काम बाढ़ का पानी उतरने के साथ ही शुरू हो सकता है, लेकिन असल बात यह है कि सन् 1971, 78 और 2003, 13 और 16 में आई बाढ़ से अब तक किसी ने कोई सबक नहीं ली. एक एक्सपर्ट की माने तो जितना खर्च पिछले तीस-चालीस साल में राष्ट्रीय राजमार्ग को बचाने के लिए हुआ है. उतने खर्च में तो चीन की दीवार खड़ी हो जाती. आपदा प्रबंधन के नाम पर जारी होने वाले पैसे आखिर कहां जाते हैं. यह शोध का विषय है.

गंगा के बैरी – बंधन, विभाजन, प्रदूषण और गाद

2016 की बाढ़ के बाद चौथी दुनिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कवि निलय उपाध्याय कहा था कि गंगा में मूलत: चार तरह की समस्याएं हैं- पहला बंधन, दूसरा विभाजन, तीसरा प्रदूषण और चौथा गाद. ये समस्याएं मानव निर्मित हैं. जाहिर है कि इसका समाधान हमें ही करना है. अब एक्सपर्ट की माने तो देश की किसी भी नदी से डिसिल्टिंग यानी गाद हटाने का काम होता ही नहीं है. बेशक आप यह कह सकते हैं कि यह तो पहले भी कभी नहीं होता था. तो पहले यानी दो दशक पहले तक देश की ज्यादातर नदियाँ अविरल थीं. बहती नदी में खुद को साफ करने और गहराई बनाए रखने की क्षमता होती थी. वक्त बदला और नदियां विकास का शिकार हुई हैं.

ये समझना रॉकेट साइंस नहीं

पहाड़ में बड़ी मात्रा में हाइड्रो पावर प्लांट बने तो मैदान में सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर नदी को बाँध दिया गया और नदी का बहना ही रुक गया. नदी रुकी मानो पूरी पारिस्थितकीय ही रुक गई. ओजोन की बात करना ज्यादा तकनीकी मामला हो सकता है, लेकिन हर साल मुख्य नदियों का डिसिल्टिंग का बजट कहाँ जाता है, ये समझना रॉकेट साइंस नहीं है. गाद जमा होने का सबसे बड़ा और भयावह उदाहरण गंगा पर बना फरक्का बैराज है. पीछे से आती गाद जमा होते-होते इतनी हो गई है कि नदी के बीचों बीच पहाड़ खड़े हो गए हैं. यही पानी फैलकर पूरे झारखण्ड-बंगाल सीमा को निगलता जा रहा है. आज तक करोड़ों रुपए के बोल्डर कटान रोकने के लिए गंगा किनारे लगाए गए हैं. यह सवाल बेमानी है कि सैकड़ों की संख्या में बोल्डर बारिश के पहले ही क्यों नहीं लगाए जाते? बारिश के समय गंगा में बह गए बोल्डरों का कोई ऑडिट नहीं होता. गाजीपुर से गंगा के उत्तरी किनारे पर चलते हुए सहज ही अहसास हो जाता है कि सारी प्रचारित गंगा यात्राएँ अपेक्षाकृत सम्पन्न दक्षिणी किनारे से ही क्यों होती हैं.

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