गांधी जयंती पर
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पता नहीं कैसे लोक में यह कहावत प्रचलित हो गयी कि लाचारी का नाम महात्मा गांधी है. जबकि सच्चाई यह थी कि वह बेबस और लाचारों के रास्ता थे.
हारे को हरिनाम में उनका विश्वास नहीं था, बल्कि धर्म के सबसे रचनात्मक स्वरूप जो बेसहारों को आन्तरिक बल प्रदान करता है और जीने के लिए घोर निराशा में भी भविष्य की उम्मीद जगाता है, उसमें यकीन करते थे.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी को या तो समझा नहीं गया या पूरी समझदारी के साथ उनकी उपेक्षा की गयी. इस कार्य में उनके विरोधी ही नहीं, उनके समर्थक भी बराबर के भागीदार हैं.
संभव था, वे जिस समाज के स्वप्नदर्शी थे,वह दोनों के सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक उउद्देश्यों के लिए दूरगामी रूप से प्रतिकूल सिद्ध होता. क्या यही वह लोकतंत्र है, जिसके लिए गांधी के नेतृत्व में इस देश ने लम्बे समय तक संघर्ष किया.
शारीरिक मानसिक यातनाएं झेली. एक समतामूलक, ऊंचनीच भेदभाव से रहित, जाति पांति से मुक्त, अभिव्यक्ति की आजादी पर आधारित सर्वथा शोषण मुक्त समाज बनाने का संकल्प लिया था. मुझे लगता है यह वह भारत नहीं हो सकता.
गांधी ने जीवन भर सिर्फ राजनीति की, सत्ता के खेल से निरन्तर दूरी बना कर रखी. त्याग और चरित्र को सर्वोपरि माना और महात्मा समझे गए और आज बहुत सारे महात्मा राजराजनीति में हैं, पर सत्ता के एक मजे हुए खिलाडी के अतिरिक्त कुछ नहीं दीखते.
बहुत से संतो का इन बातों से दूर का भी रिश्ता नहीं रह गया है. मुझे लगता है गांधी सही अर्थ में देशभक्त थे.आजादी से पूर्व यह देश आज की तरह का राष्ट्र था भी नहीं, अस्तु, आज की तरह के राष्ट्रवादी होने का तो सवाल ही नहीं उठता.
हम आजादी के बाद से ही गांधी के सपनों का भारत निरन्तर बना रहे हैं, बनाना तो दूर हम उनके सपनों को छू भी नहीं पाये.अब तो बनाने वालों की नीयत और नीतियों पर ही शंका होती है.उनके साथ चाहे जितने छल किए जाएं गांधी निरन्तर मजबूत होंगे.
सत्य अहिंसा समाजिक न्याय में उनके विश्वास की ताकत ही है कि एक जमाने में उनके घोर विरोधी पश्चिमी देशों को भी पूरी शिद्दत से उनकी याद आ रही है. गांधी हमारे मानस के स्थायी भाव बन गये हैं, हम उनको लाख कोशिशों के बावजूद भूल नहीं पाएंगे.
वे हमारे एक मात्र रास्ता हैं. उनको याद करना और उनको जीना हमारे जीवन को समग्रतः सुन्दर बनाएगा और उर्जस्वित करेगा- ऐसा मेरा विश्वास है.
महात्मा गांधी के दर्शन पर यशवंत सिंह के विचार