झुलत झुलत मईया के लगली पियसिया कि ओहि से…

दुबहड़ (बलिया) से रमेशचंद्र गुप्ता 

बलिया जनपद के विभिन्न गांवों में मंगलवार को देर रात तक रामनवमी के पावन पर्व के अवसर पर मातादाई का पूजन अर्चन महिलाओं द्वारा धूमधाम से किया गया. चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी के सायंकाल से शुरू होकर रामनवमी के सुबह तक समाप्त होने वाली मां काली ( मातादाई ) के पूजा के लिए पुरुषों एवं महिलाओं ने सोमवार से ही तैयारी शुरू कर दी थी. सदियों से गंवई आध्यात्मिक/धार्मिक परम्परा के रूप में चली आ रही चैती रामनवमी के मातादाई की पूजा के लिए पुरुष एवं विशेषकर महिलाएं प्रतिपदा ( एकम ) तिथि से ही तैयारी में लग जाती हैं.

इस पर्व में भी साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. महिलाएं घर के सारे कपड़े की धुलाई पहले ही पूरा कर लेती हैं. घर-दरवाजे का झाड़ू पोंछा कर गाय के गोबर से घर आँगन को लीपकर स्वच्छ करती हैं. पूजा सामग्री में कलश, दिया, ढकनी, शीतला माता, नया चना, गुड़, आम्रपल्लव, धूप – अगरबत्ती, लाल गमछा, छाक, सिन्दूर आदि की तैयारी पहले ही कर ली जाती हैं. शाम को सूर्यास्त से पहले गांव की अपनी पवनी चमाईन बाजा बजाकर डगर देती हैं. डगर देने के बाद ही पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है.

सर्वप्रथम महिलाएं देवकुली घर में कलश स्थापित कर पूजा पाठ करती हैं. फिर सरसों के तेल में चने की दाल की दालपुड़ी एवं पुड़ी पकाकर, भींगा चना के जाई के साथ मातादाई को श्रद्धापूर्ण चढ़ाती हैं. मातादाई के इस पारंपरिक पूजा में माली द्वारा शाम को दिया गया फूल, दवना, मड़ुआ एवं छाक का विशेष महत्व है, जिसे महिलाएं पूजा के समय चढ़ाकर जमीन पर सिर पटककर माँ से सपरिवार गलतियों के लिए क्षमा मांगती हैं.

अरवा चावल का ऐपन बनाकर पूजा के समीप की दीवार पर पंजों का ठप्पा मारकर पुनः ऐपन के घोल को सभी घरों में छिड़काव करती हैं. जब सुबह में गांव की अपनी पवनी चमाईन पुनः डगर देती हैं, तब पुनः क्षमा प्रार्थना कर प्रसाद रूपी दालपुड़ी, पुड़ी एवं चना, गुड़ को उठाकर सर्वप्रथम प्रसाद को पवनी चमाईन को देकर सपरिवार स्वयं प्रसाद ग्रहण किया जाता है.

कहीं कहीं, किसी किसी महिलाओं के आंगन या माँ काली के स्थान पर कड़ाह चढ़ाया जाता है. जिसमें गोंइठा के आग पर कड़ाह चढ़ाकर उसमें दूध एवं चावल पकाकर मातादाई/काली मां को प्रसन्न करने की परंपरा चली आ रही हैं. इस बीच अष्टमी से ही महिलाएं मातादाई के विभिन्न प्रकार के मंगल गीतों जैसे ” नीमिया के डाढ़ि मईया, लावेली हिलोरवा कि झूली रे झूली, मईया गावेली गिति कि ओहि से… झुलत झुलत मईया के लगली पियसिया कि ओहि से…  मईया गावेली गिति कि ओहि से….

भारतीय समाज आधुनिकता के रंग में रंगकर चाहे लाख प्रगति करके इक्कीसवीं सदी के कम्प्यूटर या रोबोट के युग में पदार्पण कर अपने आप को विकसित कर लें, लेकिन हमारे देश विशेषकर बलिया जनपद सहित पूर्वांचल के जिलों में मातादाई/काली माता पूजन जैसी गंवई धार्मिक /आध्यात्मिक परम्परा को भूलाया नहीं जा सकता.

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