जी हां ! इस ड्रेस में तो पढ़ाकू भी गंवार ही लगते हैं

न जाने, पिछली सरकार को कैसे पंसद आया था, बच्‍चों का यह ड्रेस

सब कुछ फ्री, फिर भी क्‍यों नहीं है किसी को फ्री की पढ़ाई पर भरोसा

जयप्रकाशनगर से लवकुश सिंह

नई सरकार के गठन के सांथ-सांथ प्रदेश स्‍तर पर कुछ बड़ी चुनौतियां भी पहले से ही मुंह बाए खड़ी हैं. इन्‍हीं में से एक है प्रदेश की बिगड़ी शैक्षिक व्‍यवस्‍था. प्राथमिक विद्यालय हो या मिडिल स्‍कूल सभी के पठन-पाठन की व्‍यवस्‍था पर हमेशा अंगुलिया उठते रही हैं. इसके बावजूद पिछली सरकार अपने पूरे शासन काल में इस मामले में सोई हुई ही प्रतीत हुई  और तो और पिछली सरकार ने इन विद्यालयों के ड्रेस भी ऐसे लागू किए गए कि उस ड्रेस में पढ़ाकू छात्र-छत्राएं भी गंवार जैसे ही लगते हैं. जब यह स्‍कूली ड्रेस लागू हुआ, तभी से इसकी आलोचना शुरू हो गई. किसी ने इस ड्रेस को चिखुरिया ड्रेस तो किसी ने फटीचर और जोकर ड्रेस का नाम दिया. इसके बावजूद भी यह ड्रेस नहीं बदला गया. जगजाहिर है दुनिया आज कहां से कहा पहुंच गई है. बच्‍चों के पहनावे से लेकर शिक्षा के स्‍तर में भी व्‍यापक बदलाव हो चुका है, वहीं यूपी की सरकारें लंबे समय से वहीं की वहीं खड़ी है. एक सर्वे के मुताबिक यह ड्रेस 100 में 10 प्रतिशत लोग भी पसंद नहीं करते, किंतु प्रदेश की पिछली सरकार को यह गंवार ड्रेस ही खूब भाया.

हर जगह उपलब्‍ध है दो तरह की शिक्षा

प्रदेश स्‍तर पर अब शिक्षा भी अन्‍य बाजारू उत्‍पादों की तरह दो अलग-अलग रूप रंग में में उपलब्‍ध हैं. ऊंची कीमत दीजिए और ऊंची डिग्रियां हांसिल कीजिए. आम आदमी भी अब यह मान चुका है कि है बिन पैसे खर्च किए उनका पढाकू बेटा लायक नहीं बन सकेगा. सरकारी प्राथमिक या उच्‍च विद्यालय कैसी तालीम दे रहे हैं अब यह बात किसी से छिपा नही है. भीरतीय संविधान में सभी वर्ग, संप्रदाय, के 14 वर्ष के छात्र-छात्राओं को नि:शुल्‍क शिक्षा देने का प्रावधान तय जरूर है, किंतु इस कानून लागू होने के डेढ दशक बाद भी सरकारी विद्यालयों की शिक्षा बेपटरी ही रही. आज हालात यह हैं कि शिक्षा का बाजारीकरण इस कदर अपने चरम पर पहुंच गया है कि शहर हो या गांव, हर जगह दो तरह के स्‍कूल हैं. एक सरकारी सुविधाविहीन स्‍कूल, तो वहीं दूसरा सुविधाओं से संपंन निजी स्‍कूल. निजी विद्यालयों में महंगे फीस होने के बावजूद भी एडमिशन की लंबी कतार है. वहीं सरकारी में सब कुछ फ्री का होने के बावजूद भी, यहां की शिक्षा पर किसी को भरोसा नहीं है.

मुरलीछपरा की व्‍यवस्‍था से ही दिख जाता है पूरा प्रदेश

हम उदाहरण के तौर पर, केवल शिक्षा क्षेत्र मुरलीछपरा को ही लें तो अन्‍य जगहों की तस्‍वीरें साफ हो जाएंगी. इस क्षेत्र के कोड़हरा नौबरार पंचायत अतर्गत प्राथमिक विद्यालय दलजीत टोला, जहां शुरू से ही एक शिक्षा मित्र ही इस विद्यालय को चलाती रह गई. यहां सहायक शिक्षक तैनात भी हैं, या नहीं किसी को नहीं पता. इस क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालय धेनू के टोला, विंद टोला, कन्‍या पाठशाला जयप्रकाशनगर, या फिर बगल के पंचायतों के विद्यालय सर्वत्र स्‍कूल के राजिस्‍टर में तो छात्रों की संख्‍या 150 से 300 तक है, किंतु मौके पर दो-तीन दर्जन से ज्‍यादा छात्र कभी भी दिखाई नहीं देते. सर्वत्र छात्रों की संपूर्ण संख्‍या उसी दिन दिखाई देती है जिस दिन वजीफा के वितरण का दिन होता है. मुरलीछपरा विकासखंड में लगभग 91 प्राथमिक और 29 पूर्व माध्‍यमिक मध्‍य विद्यालय हैं. इनमें से 30  फीसदी ही ऐसे विद्यालय हैं जहां पठन-पाठन का कुछ माहौल स्‍थापित है अन्‍यथा अन्‍य स्‍थानों पर सिर्फ कागजी खानापूर्ति के लिए ही ये विद्यालय संचालित होते हैं.

निजी की ओर झुकाव का मुख्‍य कारण

परिषदीय विद्यालयों के इस हालात को नित्‍य देखने वाले ऐसे कौन से अभिभावक होंगे जो इन विद्यालयों में अपने लाडले के सुंदर भविष्‍य की कल्‍पना करेंगे. परिषदीय विद्यादयों की दुर्दशा के कारण ही आम लागों का निजी विद्यालयों की ओर झुकाव तेजी से हो रहा है. बच्‍चों के अभिभावक भले ही मजदूरी करते हों किंतु अपने बच्‍चों का सुंदर भविष्‍य वह निजी विद्यालयों में ही देख रहे हैं. ऐसा क्‍यों ?

योजनाओं से नहीं संवरेगी शिक्षा व्‍यवस्‍था 

निजी और सरकारी शिक्षा के सवाल पर इब्राहिमाद बाद नौबरार के निवासी शिक्षक हरेंद्र सिंह, दलजीत टोला निवासी शिक्षक त्रिलोकी सिंह, इसी गांव के जैनेंद्र कुमार सिंह, गजेंद्र सिंह, संसार टोला निवासी शिक्षक हरेंद्र यादव, आदि कहते हैं कि हमारी शिक्षा बराबरी पर आधरित समाज बनाने की शिक्षा नहीं है. सरकारी विद्यालयों के हालात वास्‍तव में देखने लायक नहीं हैं. सरकार करोड़ो रुपये पानी की तरह भले ही बहा रही हो, किंतु इससे किसी का भला नहीं होने वाला. यूपी की नई सरकार को शिक्षा के स्‍तर में व्‍यापक बदलाव के उपाय ढूंढने चाहिए. सरकारी तंत्र को हर विद्यालयों पर विशेष नजर रखनी चाहिए. सिलेबस के बदलाव के सांथ पठन-पाठन का तौर तरीका भी बदले यही समय की मांग है.

सवाल-उनके बच्‍चे क्‍यों नहीं पढ़ते सरकारी में

स्‍कूल चलों अभियान की रैली, के सांथ-सांथ दिनभर जो दूसरों को परिषदीय विद्यालयों में पढ़ाने की नसीहत देते हैं, उनके खुद के बच्‍चे क्‍यों नहीं उसमें पढ़ते. यह सवाल हर किसी के लिए गंभीर है. यहां तक कि सरकारी परिषदीय विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षकों को भी खुद अपने पर भरोसा नहीं है, तभी तो वह जिस विद्यालय में पढाते हैं, वहां उनका खुद का बच्‍चा नहीं पढ़ता. वह अपने बच्‍चे को किसी कान्‍वेंट या निजी विद्यालय में महंगे फीस देकर पढवाते हैं. ऐसे शिक्षकों और विभागीय अधिकारियों की संख्‍या 90 फीसदी है. ऐसे में यह बदलाव कैसे संभव है ?  नई सरकार के लिए भी मंथन का विषय है.

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