लवकुश सिंह
आज के हालात में 80 वर्ष की अवस्था आराम की होती है, किंतु बाबू कुंवर सिंह के जमाने में ऐसा नहीं था. तभी तो 80 वर्ष की उम्र में भी उस महानायक को चैन नहीं मिल सका. वह निकल पड़े देश के लिए जंग के मैदान में, सबको सांथ लेकर, भारतीय वीरता का असल परिचय देने. बात उन दिनों की है जब अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध देश में असंतोष चरम सीमा पर था. अंग्रेजी सेना के भारतीय जवान भी अंग्रेजों के भेदभाव की नीति से असंतुष्ट थे. यह असंतोष सन 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ खुले विद्रोह के रूप में सामने आया. क्रूर ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए सभी वर्गों के लोगों ने संगठित रूप से कार्य किया और सन 1857 का वही संग्राम स्वतंत्रता का पहला संग्राम कहलाया.
नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बेगम हजरत महल जैसे शूरवीरों ने अपने-अपने क्षेत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया. बिहार में दानापुर के क्रांतकारियों ने भी 25 जुलाई सन 1857 को विद्रोह कर दिया और आरा पर अधिकार प्राप्त कर लिया. इन क्रांतकारियों का नेतृत्व कर रहे थे वीर कुंवर सिंह. वह बिहार राज्य में स्थित जगदीशपुर के जमींदार थे.
कुंवर सिंह का जन्म सन 1777 में बिहार के भोजपुर जिले में जगदीशपुर गांव में हुआ था. इनके पिता का नाम बाबू साहबजादा सिंह था. इनके पूर्वज मालवा के प्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे. कुंवर सिंह के पास बड़ी जागीर थी, किंतु उनकी जागीर ईस्ट इंडिया कम्पनी की गलत नीतियों के कारण छीन ली गई थी. प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय कुंवर सिंह की उम्र 80 वर्ष की थी. वृद्धावस्था में भी उनमें अपूर्व साहस, बल और पराक्रम था. अंग्रेजों की तुलना में कुंवर सिंह के पास साधन सीमित थे, फिर भी वह निराश नहीं हुए. उन्होंने क्रांतकारियों को संगठित किया और अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने छापामार युद्ध की नीति अपनाई और अंग्रेजों को बार-बार हराया.
कुंवर सिंह ने जगदीशपुर से आगे बढ़कर गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ आदि जनपदों में छापामार युद्ध करके अंग्रेजों को खूब छकाया. वह युद्ध अभियान में बांदा, रीवां तथा कानपुर भी गए. इसी बीच अंग्रेजो को इंग्लैंड से नई सहायता प्राप्त हुई. कुछ रियासतों के शासकों ने अंग्रेजो का साथ दिया और एक साथ एक निश्चित तिथि को युद्ध आरम्भ न होने से अंग्रेजों को विद्रोह के दमन का अवसर मिल गया. अंग्रेजों ने अनेक छावनियों में सेना के भारतीय जवानो को निःशस्त्र कर विद्रोह की आशंका में तोपों से भून दिया.
धीरे-धीरे लखनऊ, झांसी, दिल्ली में भी विद्रोह का दमन कर दिया गया और वहां अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया. ऐसी विषम परिस्थिति में भी कुंवर सिंह ने अदम्य शौर्य का परिचय देते हुए अंग्रेजी सेना से लोहा लिया. उन्हें अंग्रेजो की सैन्य शक्ति का बखूबी ज्ञान था. वह एक बार जिस रणनीति से शत्रुओं को पराजित करते थे दूसरी बार उससे अलग रणनीति अपनाते थे. इससे शत्रु सेना कुंवर सिंह की रणनीति का निश्चित अनुमान नहीं लगा पाती थी.
जब रणनीति के तहत किया अंग्रेजी सेना पर हमला
आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया के मैदान में अंग्रेजों से जब युद्ध जोरों पर था, तभी कुंवर सिंह की सेना सोची समझी रणनीति के अनुसार पीछे हटती चली गई, अंग्रेजों ने इसे अपनी विजय समझा और खुशियां मनाई. अंग्रेजों की थकी सेना आम के बगीचे में ठहरकर भोजन करने लगी, ठीक उसी समय कुंवर सिंह की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया. शत्रु सेना सावधान नहीं थी, अतः कुंवर सिंह की सेना ने बड़ी संख्या में उनके सैनिकों मारा और उनके शस्त्र भी छीन लिए. अंग्रेज सैनिक जान बचाकर भाग खड़े हुए. यह कुंवर सिंह की योजनाबद्ध रणनीति का ही परिणाम था.
जब वीर कुंवर सिंह हुए गोलियों का शिकार
पराजय के इस समाचार से अंग्रेज बहुत चिंतित हुए. इस बार अंग्रेजों ने विचार किया कि कुंवर सिंह की फ़ौज का अंत तक पीछा करके उसे समाप्त कर दिया जाए. पूरे दल बल के साथ अंग्रेजी सैनिकों ने पुनः कुंवर सिंह तथा उनके सैनिकों पर आक्रमण कर दिया. युद्ध प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही कुंवर सिंह ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया और उनके सैनिक कई दलों में बंटकर अलग-अलग दिशाओं में भागे. उनकी इस योजना से अंग्रेज सैनिक संशय में पड़ गए और वे भी कई दलों में बंटकर कुंवर सिंह के सैनिकों का पीछा करने लगे. जंगली क्षेत्र से परिचित न होने के कारण बहुत से अंग्रेज सैनिक भटक गए और उनमें बहुत सारे मारे भी गए. इसी प्रकार कुंवर सिंह ने अपनी सोची-समझी रणनीति में परिवर्तन कर अंग्रेज सैनिकों को कई बार छकाया.
कुंवर सिंह की इस रणनीति को अंग्रेजो ने धीरे-धीरे अपनाना शुरू कर दिया. एक बार जब कुंवर सिंह सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से रात्रि के समय किश्तयों में गंगा नदी पर कर रहे थे, तभी अंग्रेजी सेना वहां पहुंची और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगी. अचानक एक गोली कुंवर सिंह की बांह में लगी, इसके बावजूद वह अंग्रेज सैनिकों के घेरे से सुरक्षित निकलकर अपने गांव जगदीशपुर पहुंच गए. घाव के रक्त स्राव के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और 23 अप्रैल सन 1858 को इस वीर और महान देशभक्त का देहावसान हो गया. आज के दिन उनकी जयंती पर ऐसे महान योद्धा को बलिया लाइव की ओर से शत-शत नमन.