दुबहर (बलिया)। देश के आजादी के पहले शहीदों ने जिस भारत के निर्माण के लिए सपना देखा था. उसको पूरा होने में आज के नेता ही उसमें रोड़ा बन रहे हैं. देश के लिए कुर्बान हुए नेताओं का सपना था कि भारत में जनता की सरकार बने. जनता के लिए ही कार्य हो. जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि आम लोगों के बीच रह कर उनकी छोटी बड़ी समस्याओं का शासन स्तर से तथा अपने स्तर से समाधान करने का भरसक प्रयास करें. लोकतंत्र में जनता के द्वारा चुना हुआ जनप्रतिनिधि जनता की आवाज बुलंद करने के लिए जिम्मेदार होता है, लेकिन आज के दौर में जनप्रतिनिधि शब्द का अर्थ ही नेताओं ने बदल दिया है, जिससे आम नागरिकों का नेताओं पर से विश्वास ही उठता चला जा रहा है. उक्त बातें बुधवार को शहीद मंगल पांडेय के पैतृक गांव नगवा में मंगल पांडेय विचार मंच के अध्यक्ष कृष्णकांत पाठक एवं संरक्षक पूर्व जिला पंचायत सदस्य अरुण सिंह ने कही.
- वापस बुलाने के अधिकार (राइट टू रिकॉल) जनता का वह अधिकार, जिसके अनुसार यदि वह अपने किसी निर्वाचित प्रतिनिधि से संतुष्ट नहीं है और उसे हटाना चाहती है तो निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार उसे वापस बुलाया (हटाया) जा सकता है.
- निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार का इतिहास काफी पुराना है. प्राचीन काल में एंथेनियन लोकतंत्र से ही यह कानून चलन में था. बाद में कई देशों ने इस रिकॉल को अपने संविधान में शामिल किया. वैसे इतिहास यह है कि इस कानून की उत्पत्ति स्विटजरलैंड से हुई, पर यह अमेरिकी राज्यों में चलन में आया. 1903 में अमेरिका के लास एंजिल्स की म्यूनिसपैलिटी, 1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार राइट टू रिकाल राज्य के अधिकारियों के लिए लागू किया गया.
- बात जब भारतीय परिपेक्ष्य में करते हैं तो यह वापस बुलाने का अधिकार यानी राइट टू रिकाल बिहार की जमीन से उपजा है. सर्वप्रथम लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चार नवंबर 1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान राइट टू रिकॉल का नारा दिया. उन्होंने चुन कर गये जनप्रतिनिधियों की वापसी की बात की. वैसे अब तक राइट टू रिकॉल यानी चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार सिर्फ नारों तक ही सीमित दिखता है.
दोनों सामाजिक कार्यकर्ताओं कृष्णकांत पाठक एवं अरुण सिंह ने कहा कि लोकतंत्र की मजबूती एवं जनहित के मामलों को ध्यान में रखते हुए जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए, ताकि समय समय पर बेलगाम हुए जनप्रतिनिधियों पर अंकुश लगाया जा सके. आज लंबे-चौड़े वायदे करके छोटे-बड़े नेता चुनाव तो जीत जाते हैं, लेकिन 5 वर्षों तक जनता को दूर-दूर तक नजर नहीं आते. ऐसे में लोकतंत्र की मजबूती की परिकल्पना कर पाना बेमानी साबित हो रहा है. आज जनता अपने आप को थका थका सा महसूस कर रही है. दोनों सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसके लिए हस्ताक्षर अभियान चलाकर इसकी प्रति राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष को भेजने का निर्णय लिया.