बहुरा, तीज-जिउतिया, छठ परब आ हमार लोक संस्कृति

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चंद्रेश्वर

वरिष्ठ शब्द शिल्पी

गाँव के लोक के मरम ढेर लोग समझ ना पावे ,लमहर जिनगी गँवा देला, दू अच्छर पढ़-लिख गइला भा सहर में जाके बसे से ना होला. गँवई लोक के समझे -बूझे ख़ातिर ‘अर्बन नक्सल’ बनलो से काम ना चली. एह लोक संस्कृति के बूझे ख़ातिर एकरा में गहिरे धँसे के परी. हिन्दी के सीनियर आ बड़हन नखलउवा (लखनवी) कवि नरेश सक्सेना जी अपना एगो कविता में लिखत बाड़े कि ‘ पुल पार करे से पुल पार होला, नदी ना /नदी पार करे खाती गहिरे धँसे के परेला /ओकरा पानी में ! ‘ (भोजपुरी भावानुवाद)

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एह लोग के पास थोथा स्लोगन बा

साँच पूछी त हमनी के पढ़ल-लिखल बुधिजीवी लोग बात-बात में बिना सोचले -समझले कँवनो फैसन के अपनावे लागत बा. ‘चट माँग कनपटिए सेनुर’ के तरज़ प लोग दू अच्छर लिख के चरचा में आवल चाहेला. जब पिछला आम चुनाव भइल त ढेर सहरी बीच के बरग के लोग बरगर आ पिज्जा खा खा के फ़ेसबुक प लिखे लागल –” मैं भी चौकीदार! ” माने “हमहूँ चउकीदार! ” एह में से केतना लोग सरहद प कबो ना गइल होई भा बारह बजे के बाद रतजगा क के गाँव में, सहर के कोलनी में घूम- घूम के ना बोलल होई कि “जागत रह सुतेवाला!” (“जागते रहो सोने वालों !”) एकर माने कि एह लोग के पास थोथा स्लोगन बा, जेवन अपना ज़मीन आ माटी से कटल बा.

हिन्दी में केतना लोग तेलुगु के बरबर राव बा?

लोग दफ़्तर -दफ़्तर लूट मचवले बा, ग़रीब-गुरबा के हक़ मार के खात बा, विकास के पहिया रोकले बा, पत्थल अड़का के सेहू कहे लागत बा कि “हमहूँ चउकीदार! ” एहिजा हमरा लोहा सिंह के भोजपुरी रेडियो के एगो तक़िया कलाम ईयाद आवत बा कि ‘मार बढ़नी के रे! ‘साँच पूछल जाय त एह लोग के झड़ुवठे के मन करेला. इहे हाल ‘अर्बन नक्सल’ लोग के बा.” मैं भी हूँ अर्बन नक्सल!” माने “हमहूँ हईं अरबन नक्सल’ कहे वाला ढेर लोग सहर में आ के सुखी आ साधन-समपन्न हो गइल बा. ई लोग हर मउसम के असर से बेख़बर आ बेअसर बा, एसी में रहत बा; बाक़ी अपना के अरबन नक्सली कहे में पीछे ना रही. एह से चरचा में आवल चाही. साँचो के नक्सली बन त नक्सली बनला के मरम पता चली. हिन्दी में केतना लोग तेलुगु के बरबर राव बा? ई जेवन दोहरापन आ दोगलई बा, एकरे से विचारधारा के कबाड़ बन जात बा. ई बुराई आ कालनेमि वाला कपट भाव दूनो खेमा में घून लेखा दिखाई परत बा. ई दोगलई हिन्दी में ज़ादा बा.

Hartalika Teej fast

फतवा दिहल कट्टरपंथ ह, दहशतगर्दी ह साथी

काल्हु फ़ेसबुक प एगो सहरी साथी लिखलन कि ‘ई जेवन घर-घर में मेहरारू बहुरा, तीज़,करवा चउथ, जिउतिया,छठ के परब मनावत बाड़ी स एकर विरोध होखे के चाहीं. एकरे कहल जाला कि विरोध ख़ातिर विरोध’, जइसे कला कला ख़ातिर! अबही ठीक से जनबे ना कइल कि ई सब काहे होला, अपना जनपद आ भुईं से दूर होके सहर में मलगोफा चाभत बाड़ आ किछुओ अनाप-सनाप, अगड़म-बगड़म फरमान जारी करे लागत बाड़. पहिले आपन पजामा के नाड़ा सम्हार त तोहरा के अकिल के बादशाह समझल जाव! ई जेतना परबिया करवा चउथ छोड़ के पूर्वांचल के (भोजपुरी अंचल) के हर बरग आ जाति के मेहरारू मनावेली सन, ऊ अपना मन से, स्वेच्छा से. हमरा बिहार में त कहीं -कहीं छठ बरत मुसलमानों परिवार के मेहरारू मनावेली लोग. ई सब परबिया लोक आस्था आ लोकसंस्कृति से जुड़ल बाड़ी स. लोक संस्कृति के जन संस्कृति में रूपांतरण फतवा देबे से ना हो जाई. फतवा दिहल कट्टरपंथ ह, दहशतगर्दी ह साथी. एही के फायदा मिलत बा दक्खिनपंथी लोग आ तोहार विचारधारा के भसान होखे लागल.

ई सब से जनसाधारण में त कबो पएठ ना हो पाई, भाई जी.

एह मेहरारून के परबियन के पीछे एगो पुरान आ लमहर परंपरा बा लोक संस्कृति के. ई ख़ाली पूरब में आ भोजपुरिया समाज में नइखे; बलुक देस के हर इलाक़ा में पावल जाला. एह सब परबिया से समाज में जगर मगरपन बाँचल बा. रउरा बात करीं तरक-विवेक के, आधुनिकता के; बाक़ी परंपरा से एगो स्वस्थ संवादो राखीं. अब चिरईं जेवना हरियर पत्तीदार आ फलदार फेड़ प बइठल बाड़ी स, ओहनी के गुरदेल के गोली भा बनूख से फायर कर के मत हुलकाईं भा भगाईं जा. ई सब से जनसाधारण में त कबो पएठ ना हो पाई, भाई जी.

हर मेहरारून में एगो माई के रूप छिपल रहेला

हमनी के लोकसंस्कृति में नर -नारी भा मरद -मेहरारू भा पुरुख -स्त्री के मन के बूझे के चाहीं. हर मेहरारून में एगो माई के रूप छिपल रहेला जेवन कबो -कबो दिख जाला, ए भाई, ई जेवन माई बने वाला उदात्त भाव बा एकरा के मेहरारू सब लमहर समे से समाज, परंपरा आ संस्कृति के गढ़े में अरजित कइले बा लोग. ई माई बने वाला उदात्त भाव रइछा के भाव से जुड़ल बा. मेहरारून में सबके लेके रइछा के भाव बा. ओकरा लागत बा कि सदियन से हम ई सब क क के भाई, बेटा-भतार के बचावत आइल बानी. रउरा अरबन भा अरबन नक्सल बने के जोम में काहे ई सब प हमला बोलत बानी. एह मेहरारून से ई लोकसंस्कृति छीन लेब त ओहनी पास अबहीं एकर केवन तोड़ भा जोड़ बा. ई सब परबिया हमनी ओर के मेहरारू अपना मन से करेला ला लोग, केवनो दबाव में ना. ई हम पहिले बता चुकल बानी. बुढ़ापा में देह कमज़ोर हो जाला त एह परबियन के बइठावे आने स्थगितो करे जानेला लोग. एगो त अइसहीं पछिम के जबूनो बिचार आ कल्चर हमनी के सब किछु ठाढ़े घोंटल चाहत बा, एह में राउर फतवा के ज़रूरत का बा?

गाँव के लोक आ ओकर संस्कृति में नदी के पानी लेखा बहाव होला

ई सब परबिया उपवास से जुड़ल बाड़ी स. रोज़ एक लेखा दाल-भात आ रोटी-तरकारियो खाए से मन उबिया जाला. सहर में त मन लगावे के हज़ार गो साधन बा, गाँव में का बा! गाँव में एही बहाना मेहरारू बाहर के हवा -बतास लिहली स, नदी आ ताल प जाके, नहान के बहाने. जीवन में तीज -परब से किछु सरसता घुल जाला. गाँव के लोक आ ओकर संस्कृति में ठहराव ना होखे ; ओकरा में नदी के पानी लेखा बहाव होला. अब नदिए सोगहग गंगोत्री से गंगासागर तक बदबूदार हो जाई त बात दोसर बा. ई नदियन के बदबूदारो बनावे में बैरी पइसा के राज आ ओकर मुनाफाखोरी बा. ओहिजा केहू रोक ना लगाई जे परंपरा के गुन गावत बा, सत्ता हथियवले बा.

चलते चलते

हिन्दी के आधुनिक लेखक प्रेमचंद एगो अपना लेख में लिखले बाड़न कि मेहरारू पूरन इंसान होला लोग आ पुरुख ओकरा अपेक्षा किछु बर्बर आ फूहड़. जेवना दिन पुरुख मेहरारू बनि जइहें, गुन के मामला में त ई दुनिया साँच में सरग बनि जाई. एह से हमरा बुझाता कि लोकसंस्कृति के मामला भा मेहरारून के बहुरा, तीज -जिउतिया भा छठ बरत प हमला बोलल, ऊहो हड़बोंगई में सही नइखे

(महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि और लिट्टी -चोखा के लिए मशहूर पंचकोसवा की धरती बक्सर के मूल निवासी हैं लेखक, संप्रति यूपी के बलरामपुर में एमएलकेपीजी कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष / एसोसिएट प्रोफेसर हैं और लखनऊ में रहते हैं, प्रस्तुत टिप्पणी उनके फेसबुक कोठार से साभार) .