पहिले हमनी के गाँव -जवार में बियाह-सादी में नाच आ बैंडबाजा के बहुते महातम रहे

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चंद्रेश्वर

वरिष्ठ शब्द शिल्पी

पहिले हमनी के गाँव -जवार में बियाह-सादी में नाच आ बैंडबाजा के बहुते महातम रहे, ना कह सकीं कि अबहियो ओतने महातम बा एह सब के. गाँव में कोई के बेटी के बारात आवत रहे त दिने में दस बजे ले सामियाना गड़ाए लागत रहे. चोभ वाला. लरिकाईं में हमनी के पहिलका काम रहत रहे ई कि पता लगाईं जा कि केकर नाच पार्टी आवत बा! अतने ना, हमनी के अगल-बगल के गाँवो में जाके पता लगावत रहीं जा कि केकर नाच पार्टी आवत बा! हमनी के गाँव में दू-चार बार बढ़िया नाच पार्टी आइल होई; बाक़ी बगल के गाँव सिमरी नाच ख़ातिर मसहूर रहे, खरहाटाँड़ आ सिंहनपुरा में, बलिहार -दुल्लहपुर में बियाह -सादी में बढ़िया नाच पार्टी आवत रही स. हम लरिकाईं में चाई ओझा के नाच सिमरी, दुद्धी पट्टी में देखले रहीं, सन् 1972-73 में. एगो लमहर समे गुज़र गइल एह बीच. अबहीं किछु दिन पहिले हमरा चाई ओझा के ईयाद आइल त हम उन्हुका प एगो कविता खड़ी बोली में लिखले रहीं जेवन एहिजा नीचे दिहल जा रहल बा —

चाई ओझा की धुँधली -सी याद

चाई ओझा के नाच-गाने की/यादें / अब भी बचीं/
दिलो-दिमाग़ में/धुँधली -सी…
कहते लोग कि शादी -बारात में /नाच -गाने के लिए
बुलाए जाते /और करार से ज़्यादा पैसा
लूट कर ले जाते /प्यार -मुहब्बत से
बारात की विदाई के बाद/शामियाना उखड़ने लगता
दुल्हन विदा होने लगती /डोली में बैठकर
होश में आते तब/दुल्हा के बाप/जब चेंट उनका
ढीला हो गया होता/इस तरह नाम पड़ा
एक नचनिए -गवैए का/चाई ओझा
बचपन में या किशोरावस्था में /देखा था सन् 1972-73 में /चाई ओझा का नाच/वे जितना सुंदर नाचते
उतना ही सुंदर गाते/अपने सुरीले कंठ से
जब वे एक गीत में ‘नारायण’ को पुकारते…
कहते कि ‘गज के उबरनी रउरा नंगे पैर धाइ के’
तो सचमुच उसमें इतनी मार्मिकता होती/कि लगता
चाई ओझा के मंच पर /प्रकट ही हो जायेंगे /प्रभु नारायण
गोकि वे कभी प्रकट नहीं हुए…
मैं अपने गाँव -जवार से कितना दूर निकल आया
फिर भी जैसे ही लौटता यादों में/तभी भिखारी ठाकुर की
बिदेसिया की धुन गुनगुनाने का मन करता …

चाई ओझा की गाई किसी धुन से होने लगता
अनुप्राणित इतने साल बाद भी…

मेरे मन में बसीं…इतनी यादें
मेरे मन में बसीं…इतनी धुनें
पूर्वी गानों की कि कुछ न पूछें आप सब …
परदेस में इनकी याद भावुक ही नहीं बनाती
रूला भी देती है ……!

(चाई ओझा 1970 के दशक में भोजपुरी अंचल के आरा -बक्सर के आसपास के इलाक़े में एक मशहूर नर्तक -गायक थे. हमारी पीढ़ी के लोगों के ज़ेहन में उनकी धुँधली -सी याद ज़रूर बची होगी)

हमनी के नचदेखवा के हिरावल दस्ता में रहीं जा

अमर लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के सरगबास 1972 में ह. ऊ हमनी के गाँव -जवार में केहू बड़कवा के सादी-बियाह में कबो हमनी के होस भइला प आइल होखसु, एकर कँवनो इसमिरती हमरा पास नइखे. हो सकता कि भिखारी ठाकुर के नाच पार्टी बिदेसिया के रेट ओहू घरी ज़ादा होखे. ऊ सामान्य आदमी भा परिवार के पहुँच भा अवकात से बाहर होखे.

हमनी के लरिकाईं में भारी नचदेखवा रहीं जा. नीमन नाच आवे त घर में गार्ज़ियन के आँखि में धूर झोंक के रात में निकल जात रहीं जा. हमनी के सामियाना में अगिला क़तार में बइठत रहीं जा. एक तरह से कहल जाय त नचदेखवा के हिरावल दस्ता में रहीं जा. हमनी के रात भर नाच देखि के समियने में सुत रहत रहीं जा. भोर में सेन्हे प धरात रहीं जा. अब कहही के पर जाला कि जा रे ज़माना!

गाँव में पहिले फूल मियाँ के एगो छोटहन बैंड बाजा रहे. बाद में हमनी के संग के मिडिल इसकूल तक पढ़ल जाकिरो मियां बैंड पार्टी बनवलन. हमरा इसमिरती में एगो बैंडबाजा के असर अब ले बा. फूल मिया से पहिले एगो सुलतान मियाँ के बैंडपार्टी रहे. एक तरह से सुलतान मियाँ आ फूल मियाँ के बाद जाकिर मियाँ तीसरकी पीढ़ी में आवेलन. अब इहो बूढ़ हो चलल बाड़े. जे होखे, फूल मियाँ भले बैंड पार्टी कामचलाऊँ रखले रहन बाकिर बैंड पार्टी के समाज में ऊ आपन ख़ूबे धाक जमवले रहन.

बियाह में बलिया के हरदी से बरियार बैंड पार्टी के गोल जुटवले रहन

एक हाली आपन छोट भाई भा बेटा भा भतीजा के बियाह में बलिया के हरदी से बरियार बैंड पार्टी के गोल जुटवले रहन, खलिसा नेवता प. ओह बैंड पार्टी के किलाट आ पिस्टीन मास्टर के जे सुनले बा ओकरा संवसे संसार में कहीं के बैंड पार्टी के बाजा के बाज अच्छा ना लागी. गज़बे बाजा के बाजल देखले बानी जा हमनी के, लरिकाईं में. पूरा गाँव उमड़त रहे सुने खातिर. अबही ढेर लोग जियत बा जे हमरा बतिया के गवाह बन जाई. एक से बढ़के एक पूरबी गाना के धुन सुनले बानी जा हमनी के; इहे ना फ़िल्मी गाना के धुनवो सुनले बानी जा. ओह घरी बाजा जब बाजे त सबकरा हियरा में ध्वनियन के बुलबुला फूटे लागत रहे. जइसे पानी में हिलकोरा उठेला ओइसे लोग के मन में उठे.

जब पिस्टीन से धुन निकले कि ‘ गवना कराइ पिया घरे बइठवल कि अपने बसेल परदेस ………’ त पीछे से ढेर अधेड़ लोग ‘हो…हो’ करे लागत रहे. एकरे में बीच में लौंडा जब कमर मटका के ठुमका लगावे त ढेर लोग आपन भूभुन फोरवावे ख़ातिर तय्यार हो जात रहे. लोग हाथ में दस टकिया लहरावे लागत रहे. ओह घरी लागे कि सबकर करेजा काढ़ि के पिस्टीन मास्टर बाहर रख दिहें. जेतने ज़मीन प लौंडा उछले ओतने पिस्टीनो धुरफान मचावे. ओही घरी के असर बा कि राह चलत भा लमहर सफ़र में अबहियो कँवनो भोजपुरी गाना के अंतरा अचक्के में गुनगुनाए लागेनी. इहे त हमार अंदर के थाती ह जेवन छिन जाई त हम कंगाल आ विपन्न हो जाइब. साँच पूछी त मुरदा हो जाइब.

अब त विडियो आ टीवी के आगे सब नाचबाजा फेल बा. नयका लोग भोजपुरी के माने फूहड़ता समझत बा लोग. ई एगो बड़हन त्रासदी बा जेवन हमनी के अँखियन के सोझा घटित हो रहल बा.

(लेखक संप्रति बलरामपुर ,यूपी में एमएलकेपीजी कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष/एसोसिएट प्रोफेसर हैं और लखनऊ में रहते हैं, प्रस्तुत टिप्पणी उनके फेसबुक कोठार से साभार)