देखो वीर जवानों अपने खून पे ये इल्जाम ना आए….

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बैरिया से वीरेन्द्र नाथ मिश्र 

महज जश्न ए आजादी मनाने के लिए ही नहीं आता यह दिन

अंग्रेजी हुकूमत की छाती पर कील ठोंक कर भारत को आजादी से पहले आजादी हासिल करने वाले 18 अगस्त सन 1942 में अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाले शहीदों की स्मृति में लगने वाला शहीद मेला रविवार को बैरिया शहीद स्मारक पर लगा. जहां क्षेत्र व जनपद के जनसाधारण से लेकर शिक्षक, समाजसेवी, छात्र, राजनीतिक कार्यकर्ता, जनप्रतिनिधि एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के आश्रित जुटे. यह पर्व द्वाबा वासियों के आन मान व सम्मान का प्रतीक माना जाता है. यद्यपि की आजादी हासिल हुए लंबा अरसा बीत गया. लेकिन इसे मौजूदा युवा पीढ़ी आजादी की लड़ाई में अपने बुजुर्गों के किस्से मान अक्सर अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर लेती है. लेकिन द्वाबा की धरती पर शान से खड़ा शहीद स्मारक आज के बढ़ते जात-पात, ऊंच-नीच, भ्रष्टाचार, अत्याचार को देख मानो यह संदेश देता है कि साल में एक बार आने वाला यह पर्व महज जश्न ए आजादी मनाने का पर्व नहीं है. यह स्मारक मानो पुकार कर कहता है कि ‘देखो वीर जवानों अपने खून पे ये इल्जाम ना आए मना कहे कि मेरे बेटे वक्त पड़ा तो काम ना आए’.

द्वाबा के बुजुर्गों में बिखरी पड़ी 18 अगस्त 1942 के जंगे आजादी के संघर्ष की कड़ियों को समेटने पर यह बात सामने आती है कि कभी बहुत पहले मंगल पांडे ने स्वाधीनता के सपनों का जो बीज बोया वह अंकुरित होकर पुट हो चला था. महात्मा गांधी के आवाहन ‘करो या मरो’ की जागृति द्वाबा में भी आई थी. देश के सारे बड़े नेता जेलों में बंद थे. द्वाबा वासियों के पास नेतृत्व का प्रकाश नहीं था. लेकिन उत्साह उमंग व आजादी हासिल करने के जज्बात व तड़प की कमी नहीं थी. यहां के किसान, मजदूर, छात्र, साधु- सन्यासी, आम लोग अपने आप पर काबू नहीं पा सके और बैरिया थाने का घेराव कर दिए. तब उनका मकसद यही था कि थाने पर कब्जा कर लिया जाए. यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराया जाए. उन्मत्त भीड़ थाने पर पथराव करने लगी. उधर पुलिस वाले गोलियां चलाने लगे. थाने के शीर्ष पर तिरंगा फहराने के प्रयास में निर्भय कृष्ण सिंह, देश बसन कोइरी, नरसिंह राय, राम जन्म, राम प्रसाद उपाध्याय, मैनेजर सिंह, कोशल कुमार सिंह, रामदेव कुम्हार, रामवृक्ष राय, राम नगीना सुनार, छट्ठू कम कर, देवकी सुनार, धर्मदेव मिश्र, भीम अहीर कुल 14 लोग गोलियों के शिकार हुए. 11 ने घटनास्थल पर ही वीरगति प्राप्त की. तीन इलाज के दौरान तथा गदाधर पांडे, गौरी शंकर राय तथा राम रेखा शर्मा की जेल यातना में मौत हुई. लेकिन अंग्रेजों की पुलिस यहां के क्रांतिवीरों का सामना नहीं कर पाए. रात में वर्षा आरंभ हो जाने पर क्रांतिवीरों की भीड़ थोड़ा सा तितर-बितर हुई. इसका लाभ उठाते हुए अंग्रेज सिपाही थाने के पिछवाड़े से खेतों से होते हुए छिपकर भाग खड़े हुए. क्रांतिवीरों ने थाने पर तिरंगा फहरा दिया और अगले दिन बलिया के लिए प्रस्थान किए. जहां चित्तू पांडेय के नेतृत्व में बलिया को आजाद कराया गया. बाद में दमनकारी सेना यहां आई जिसने फिर कब्जा जमाया था. यह दिन द्वाबा वासियों के लिए महज जश्ने-आज़ादी मनाने का दिन नहीं होता, बल्कि कुछ सबक, कुछ प्रेरणा देने के लिए आता है. जिसे युवा वर्ग को अपने जहन में बैठाना चाहिए.