ईवीएम का रोना छोड़कर जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका में आएं सपा-बसपा-कांग्रेस

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योगेश यादव

सपा-बसपा-कांग्रेस को ईवीएम का रोना छोड़कर जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका में आ जाना चाहिए. पिछले चार दिनों में मैंने करीब तीन दर्जन विधानसभाओं के वोटिंग पैटर्न, सपा-बसपा-भाजपा को मिले पोस्टल बैलेट देखने के बाद दावे के साथ कह सकता हूं कि ईवीएम से कहीं कोई छेड़छाड़ नहीं लगती है.

यह सही है कि पोस्टल बैलेट में पहले स्थान पर सपा, दूसरे पर बसपा और तीसरे पर बीजेपी है. लेकिन यह भी सच है कि पोस्टल बैलेट सरकारी कर्मचारी देते हैं. और कर्मचारी किसी बड़े बदलाव के पक्ष में कभी नहीं रहते. इसलिए पोस्टल बैलेट को ट्रेंड नहीं माना जाना चाहिए.

अब वोटिंग की बात….सपा आज तक कभी भी 29 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर सकी. इसमें 22 प्रतिशत ही स्थायी वोट हैं. इस बार भी 75 प्रतिशत यानी करीब 300 सीटों पर लड़ने के बाद उसे करीब 22 प्रतिशत वोट मिलेय. अगर वह सभी सीटों पर लड़ती तो फिर से 29 या 30 प्रतिशत वोट होते. इसी तरह बसपा के पास भी स्थाई वोट हमेशा 20 से 22 प्रतिशत रहे हैं और इस बार भी उसके पर इतने ही हैं. कांग्रेस को छह से 9 प्रतिशत ही पिछले कुछ चुनावों में वोट मिलते रहे और इस बार भी इतने ही हैं.

मतलब सपा के 22 बसपा के 22 और कांग्रेस के 6 यानी 50 प्रतिशत वोटों के बाद बिखरे 50 प्रतिशत वोटों को सहेजने में बीजेपी ने जोर लगाया और दस प्रतिशत कम ही सही करीब 40 प्रतिशत वोटों को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गई. अब सवाल यह उठता है कि बीजेपी ने इन वोटों को सहेजा कैसे? और इसने जीत दिलाने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई? मुझे लगता है इसमें तीन फैक्टरों ने काम किया.

पहला फैक्टर…यादव और मुस्लिमों के खिलाफ ध्रुवीकरण…पूरे चुनाव बीजेपी की ओर से लोगों को यह बताने की कोशिश की गई कि सपा सरकार ने केवल यादवों और मुस्लिमों के लिए काम किया. नौकरियां ही नहीं, सरकारी लाभ भी इन्हीं दोनों को दिया गया. लैपटॉप, कन्या विद्याधन, पेंशन आदि के लाभ केवल यादवों को दिए गए. आरक्षण के नियमों ने बीजेपी के आरोपों को बल दिया.

दूसरा…राजभर और पटेल वोटों के लिए समझौता…जिस तरह यादवों का वोट सपा, जाटवों का वोट मायावती के साथ जाता है, उसी तरह पटेल वोट अपना दल और राजभर वोट भासपा के साथ जाता रहा है. कानपुर से बलिया तक की करीब डेढ़ सौ सीटों पर पटेल और राजभर वोट भी उसी तरह निर्णायक हैं, जिस तरह यादव और मुस्लिम. बीजेपी ने इन दोनों दलों से समझौता किया और पिछड़े वर्ग की तीन सबसे बड़ी जातियों में से दो पटेल और राजभर को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गई.

तीसरा…..और सबसे अहम फैक्टर नोटबंदी…यादव, पटेल, राजभर और जाटव को तो पता था कि उन्हें किसे वोट देना है और उन्होंने दिया भी उधर ही. लेकिन अन्य जातियों पर इस नोटबंदी ने गजब का प्रभाव डाला. इस प्रभाव का पता मुझे दिसंबर में ही लग गया था. हमारे दफ्तर में काम करने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर Suresh Pal की बहन की शादी थी. अचानक नोटबंदी से उसके पैसे फंस गए. बैंक से एक मुश्त पैसा निकल नहीं पा रहा था और घर पर रखा पैसा अब केवल बैंक में जमा हो सकता था. किसी तरह पैसे का इंतज़ाम करने और शादी से निपटने के बाद एक दिन चुनाव की चर्चा हो रही थी और सुरेश पाल ने कहा कि इस बार मेरा वोट तो बीजेपी को जायेगा. मैंने आश्चर्य से पूछा क्यों? तो उसने कहा कि नोटबंदी से जब मुझ जैसे व्यक्ति की नींद उड़ गई तो जिनके पास करोड़ों होगा, उनके साथ क्या हुआ होगा? उसकी बातों से साफ लग रहा था कि वो क्या-क्या सोच रहा है. वो जो-जो सोच रहा था, सही सोच रहा था या गलत? उस पर बहस हो सकती है, लेकिन उस फैक्टर ने चुनाव में काम तो किया.

मेरा निष्कर्ष ख़त्म….अब निवेदन

अब जबकि बीजेपी की प्रचंड बहुमत से जीत हुई है. अगले तीन-चार दिनों में बीजेपी की सरकार भी बन जायेगी. हम चाहेंगे कि जो भी मुख्यमंत्री बने, वह अपने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के आरोपों को गंभीरता से ले और इस बात की जांच कराये कि क्या यादवों को लैपटॉप, कन्याविद्याधन, पेंशन या नौकरियों में फायदा पहुंचाया गया है? अगर फायदा पहुंचाया गया है तो जो भी दोषी हो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाये. क्योंकि ये आरोप केवल सपा पर या सपा सरकार पर या अखिलेश यादव पर नहीं लगे हैं. यह आरोप यादवों पर लगे हैं. जिन यादवों को अपनी योग्यता पर लैपटॉप या कन्याविद्याधन मिला या नौकरी मिली, उन्हें इन आरोपों के बाद जरूर हिकारत की नजरों से देखा जा रहा होगा. अगर कहीं भी नियमों का पालन किये बगैर जाति के आधार पर फायदा पहुंचाया गया है तो कार्रवाई होनी चाहिए.

(युवा पत्रकार के फेसबुक वाल से)