अब मार्केट में गुरुओं की भी वैरायटियां उपलब्ध हैं

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जयप्रकाशनगर, बलिया से लवकुश सिंह

LAVKUSH_SINGHशिक्षा गुरुजनों के दम पर ही बेहतर होती है और यह भी उतना ही सच है कि उनकी लापरवाही से बदतर भी होती है. मौजूदा दौर में अन्‍य बाजारू उत्‍पादों की तरह गुरुजनों के भी अलग-अलग रूप रंग बाजारों में उपलब्‍ध हैं. ऊंची कीमत दीजिए और ऊंची  शिक्षा या डिग्रियां हांसिल कीजिए. आम आदमी भी अब यह समझने लगा है कि जेब भारी होगी तभी पढाकू बेटा लायक बन सकेगा. यदि आप पर धन कुबेर की कृपा नहीं है तो आपको अच्‍छे गुरुजी भी नहीं मिल सकते. सरकारी प्राथमिक या उच्‍च विद्यालय कैसी तालीम दे रहे हैं, अब यह बात भी लगभग लागों को समझ में आने लगी है.

आखिर क्यों बेपटरी हुई सरकारी स्कूलों की व्यवस्था

आज शिक्षक दिवस है. इसलिए हम भी इसी बिंदू को आधार मान आपके सांथ मंथन करना चाहते हैं. यह बात भी जगजाहिर है कि भारतीय संविधान में सभी वर्ग, संप्रदाय, के 14 वर्ष के छात्र-छात्राओं को नि:शुल्‍क शिक्षा देने का प्रावधान है. यह कानून लागू होने के डेढ़ दशक बाद भी सरकारी विद्यालयों की शिक्षा बेपटरी ही रही, जबकि इस कानून के तहत एक दशक के अंदर ही सरकारी व्‍यवस्‍था के तहत शिक्षा को पटरी पर लाने की जिम्‍मेदारी हमारे रहनुमाओं, गुरुजनों के अलावा सरकारी तंत्र की भी थी.

शिक्षा का बाजारीकरण अपने चरम पर है

आज हालात यह हैं कि शिक्षा का बाजारीकरण अपने चरम पर पहुंच गया है. शहर हो या गांव, हर जगह दो तरह के स्‍कूल और दो तरह के गुरुजन भी हैं. एक तरफ सरकारी सुविधाविहीन स्‍कूल,  सरकारी गुरुजन तो वहीं दूसरी ओर सुविधाओं से संपन्न निजी स्‍कूल और प्राईवेट स्‍कूलों में पढ़ाने वाले गुरूजन. निजी विद्यालयों में महंगे फीस होने के बावजूद भी एडमिशन की लंबी कतार है. वहीं सरकारी में सब कुछ फ्री का होने के बावजूद वहां की शिक्षा पर किसी को भरोसा नहीं है.

जरूरत है सरकारी स्कूलों के शिक्षक आत्मचिंतन करें

हम बात सिर्फ अपने बलिया की ही करें तो यहां 60 फीसदी प्राइमरी व मध्‍य विद्यालयों के बच्‍चे ठीक से अपने पाठय पुस्‍तकों को भी नहीं जानते. गुरुजनों की लापरवाही भी बेहिसाब है. उनके पढाने के तौर तरीकों से लेकर चाल चलन पर हर दिन अंगुलियां उठते रहती है. सरकार की ओर से छात्रवृति, पोशाक, पुस्‍तकें, एमडीएम सहित तमाम योजनायें फ्री की अनवरत चलती रहती रहती हैं. प्राथमिक या मध्‍य विद्यालयों में अब शिक्षकों का भी वैसा अभाव नहीं. इतने के बावजूद भी किसी को भी जितना भरोसा निजी विद्यालयों पर है, उतना सरकारी पर नहीं है. आखिर इसकी वजह क्‍या है ? यही हमारे मंथन का विषय है. यही सवाल आम जनों से पूछने पर 80 फीसदी लोगों का यह मानना है कि सरकारी गुरुजन ज्‍यादा पैसे मिलने के बावजूद पढाने के मामले में पूरी तरह लापरवाह हैं. वहीं निजी विद्यालयों में कम पैसे मिलने के बाद भी शिक्षकों पर बेहतर शिक्षा देने का दबाव बना रहता है. यही वजह है जिसके कारण आम अभिभावक अपने बच्‍चों का भविष्‍य निजी विद्यालयों में ही देख रहे हैं. ऐसे में आप ही बताएं, ज्‍यादा वेतन पाने वाले गुरुजी बच्‍चों का भविष्‍य बिगाड़ रहे हैं या संवार रहे हैं. आज शिक्षक दिवस है, इसीलिए इस विषय पर चर्चा जरूरी थी.

इन शिक्षकों और अफसरों के बच्चे कान्‍वेंट में पढ़ते हैं

यहां एक बड़ा फर्क यह भी दिखता है कि सरकारी विद्यालयों में पढाने वाले शिक्षकों को भी खुद अपने पर भरोसा नहीं है, तभी तो वह जिस विद्यालय में पढाते हैं, वहां दिन भर दूसरों को नसीहतें देते हैं, किंतु उनका खुद का बच्‍चा वहां नहीं पढता. वह अपने बच्‍चे को किसी कान्‍वेंट या निजी विद्यालय में महंगी फीस देकर पढ़वाते हैं. ऐसे शिक्षकों की संख्‍या 90 फीसदी है. यह हाल केवल शिक्षकों का ही नहीं, संबंधित अधिकारियों या हमारे रहनुमाओं का भी यही हाल है. ऐसे में यह बदलाव कैसे संभव है ? सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

हमारी शिक्षा व्यवस्था बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण नहीं कर रही है

निजी और सरकारी शिक्षा के सवाल पर हमने शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर कुछ चुनिंदा गुरुजनों व शिक्षाविदों से बात की. हमें दर्जनों बुर्जुग अवकाश प्राप्‍त शिक्षक मिले जो कहते हैं कि हमारी शिक्षा बराबरी पर आधारित समाज बनाने की शिक्षा नहीं है. सरकारी विद्यालयों के हालात वास्‍तव में देखने लायक नहीं हैं. सरकार करोड़ों रुपए पानी की तरह भले ही बहा रही हो, किंतु वहां की शिक्षा से किसी का भला नहीं होने वाला. सरकार को शिक्षा के स्‍तर में व्‍यापक बदलाव के उपाय ढूंढने के साथ-साथ सरकारी स्‍कूलों में कुशल  और अनुभवी शिक्षकों को बहाल करना चाहिए,  न कि केवल डिग्री के आधार पर उनकी नियुक्ति होनी चाहिए. यह युग बदलाव का है. अब गुरुजन भी पैसे के हिसाब से अपना दायित्‍व तय कर रहे हैं.